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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
समयसार गाथा
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३२ जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, उस मुनि को जित मोह कहा जाता है।
प्रवचनसार गाथा – २४२ जयसेनाचार्य टीका - भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से बाकी रहे पुद्गलादि पाँच द्रव्यों से
भिन्न सहज शुद्ध नित्यानन्द रूप एक स्वभावी मैं आत्मद्रव्य हूँ, वही मेरे लिए उपादेय है, ऐसी रुचि वही सम्यग्दर्शन है ।
उपरोक्त आगम वाक्यों से भी स्पष्ट है कि ज्ञानी तो ज्ञान में आने पर भी अन्य द्रव्य एवं उन द्रव्यों के भाव उनसे भिन्न अपने आपको जानता है एवं मानता है तथा उन सब ज्ञेयों के प्रति उपेक्षाबुद्धि के द्वारा अपने आपको, उन सब द्रव्यभावों से अधिक अनुभव करता है, यही मोह अर्थात् मिथ्यात्व के नाश करने का उपाय है
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भेदज्ञान
भेदज्ञान का स्वरूप एवं अन्य द्रव्यों से भेदज्ञान
भेदज्ञान का मूलभूत सिद्धान्त है दो मिली हुई वस्तुओं में से दोनों को अलग-अलग पहिचानना ।
यहाँ हमारा प्रकरण भेद का ज्ञान करने का है, दोनों को अलगअलग कर देने का नहीं है; क्योंकि दोनों को पहिचान लेने के पश्चात् ही दोनों में से कौन सी वस्तु मेरे लिए उपयोगी है व कौनसी अनुपयोगी है, ऐसा प्रयोजनभूत तथ्य प्रगट होता है ।
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भेदज्ञान का मुख्य उद्देश्य जब तक उन वस्तुओं के विश्लेषण द्वारा, यह पता नहीं लगाया जावे कि इसमें प्रयोजनभूत पदार्थ क्या है व कितना है और अप्रयोजनभूत क्या है व कितना है, तब तक उसका मूल्यांकन कैसे किया जा सकेगा। जैसे ८० प्रतिशत शुद्ध स्वर्ण तथा २० प्रतिशत अन्य धातुयें मिली हुईं हैं – ऐसी मिश्रित स्वर्ण की डली को बेचने के
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