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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (६१ ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक है, उसका कार्य तो स्व हो अथवा पर सबको जानने मात्र का है और उसका जानने का कार्य भी रुक नहीं सकता। लेकिन अज्ञान के कारण परज्ञेयों को ही स्व के रूप में स्वीकार कर, अनादिकाल से उन रूप ही अपना अस्तित्व मानने के कारण, अपने जीवतत्त्व को भूलकर, उपयोग की दिशा परसन्मुखतापूर्वक ही चली आ रही है। जब तक अपनी भूल यथार्थ समझपूर्वक समझेगा नहीं और अपने जीवतत्त्व में स्वपना तथा समस्त परज्ञेयों में परपना नहीं लावेगा, तब तक स्व में निवास करने की रुचि ही जाग्रत नहीं होगी, ऐसी स्थिति में उपयोग परज्ञेयों की सन्मुखता छोड़कर स्वज्ञेय के सम्मुख कैसे हो सकेगा? उपयोग के स्वसन्मुख हुए बिना आत्मानुभव तो सम्भव ही नहीं हो सकेगा। अत: जैसे भी बने वैसे, जीवतत्त्व एवं अजीवतत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझकर, पर से प्रेम तोड़कर, स्व में प्रीति जोड़नी चाहिए। इसप्रकार एक ओर तो मेरा ज्ञानस्वभावी ज्ञायक जीवतत्त्व अकेला तो “मैं” रह गया और दूसरी ओर परज्ञेय के रूप में मेरी ही पर्याय में होने वाले समस्त शुभाशुभ भावों के साथ-साथ मेरा शरीर और मेरे शरीर से सम्बन्धित स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब आदि सचेतन पदार्थ एवं धन, मकान, पैसा, जायदाद आदि सभी अचेतन पदार्थ सम्मिलित हो जाते हैं, वे रह गये। समस्त छह जाति के द्रव्य तो मेरे से भिन्न होने से परज्ञेय हैं ही। इसप्रकार मैं तो मात्र एक ज्ञायक के रूप में स्थाई बने रहने वाला, ध्रुवतत्त्व रह जाता हूँ। मेरे ज्ञान में परज्ञेय के रूप में सब कुछ ज्ञात होने पर भी, मैं तो उन सबसे भिन्न अपना अस्तित्व बनाये रखता हूँ। वे मेरे को किंचित्मात्र भी विकृत नहीं कर सकते? ऐसा महान् सामर्थ्यवान् मैं जीवतत्त्व हूँ। यही मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप है। ऐसे मेरे जीवतत्त्व को जिनवाणी में अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है। जैसे- शुद्धजीवतत्त्व, परमपारिणामिक भाव, ध्रुवतत्त्व, शुद्धजीवास्तिकाय, ज्ञायकभाव, त्रिकालीभाव, कारणशुद्धजीव, कारण परमात्मा इत्यादि अनेक अपेक्षाओं को लेकर, मेरे ही वे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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