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( सुखी होने का उपाय भाग-४ ने समयसार में अव्यक्त का स्पष्टीकरण छह हेतुओं द्वारा बहुत गम्भीरतापूर्वक किया है। इसीप्रकार आठवें बोल अलिंगग्रहण का मर्म २० हेतुओं के द्वारा प्रवचनसार गाथा १७२ की टीका में स्पष्ट कर सिद्ध किया है कि आत्मा किसी चिन्ह के द्वारा पहिचानने में नहीं आ सकता, अत: आत्मा किसी भी लिंग (चिन्ह) रहित है। इन दोनों ही विषयों पर हर एक बोल का मर्म पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने बहुत गम्भीरतापूर्वक चिन्तन, मनन एवं अनुभव करके विस्तारपूर्वक प्रवचनों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है जो पुस्तकाकार प्रकाशित भी हो चुके हैं। पूज्य स्वामीजी ने अगर इन दोनों विषयों को इतने विस्तारपूर्वक स्पष्ट नहीं किया होता तो उनका मर्म समझना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था। अगर उक्त स्पष्टीकरण प्राप्त नहीं हुआ होता तो आत्मार्थीजन अपनी रुचि में किंचित् भी परिवर्तन करे बिना, अपनी कल्पना द्वारा आत्मा को व्यक्त बनाकर, एकान्त में ध्यान लगाकर कल्पित विषय में एकाग्र होकर, आत्मानुभव करने के प्रयास में संलग्न होकर, आत्मलाभ के मार्ग से और भी ज्यादा दूर हो जाते। पूज्य स्वामीजी ने उपरोक्त टीकाओं का विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण करके हम सब पर महान उपकार किया है। इसप्रकार उपरोक्त गाथा एवं उसके स्पष्टीकरण, हमारी आत्मा का अस्तिनास्तिपूर्वक यथार्थ स्वरूप समझने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि आचार्यश्री ने इस ही गाथा का पाँचों परमागमों में उपयोग किया है। अत: हमें भी इसका महत्व समझते हुए गम्भीरतापूर्वक चिन्तन, मनन करके अपने आत्मा का स्वरूप समझना चाहिए।
उपरोक्त गाथा में नास्तिपक्ष के आठ बोलों के अतिरिक्त आत्मा के अनुभव के लिए सबसे महत्वपूर्ण अस्तिपक्ष - उसका भी एक बोल दिया है। एक चेतना ही आत्मा का ऐसा गुण एवं लक्षण है जिसके द्वारा ही आत्मा पहचाना जा सकता है। गाथा का उद्देश्य ही आत्मा की पहचान कराने का है। आत्मा किसी समय भी कहीं भी चाहे निगोद में हो अथवा सिद्ध में हो चेतना ज्ञान-दर्शन के बिना नहीं रहता। चेतना की पर्याय, पर्याय का स्वामी ऐसे चेतना गुण ही हैं। गुण-गुणी से अभिन्न रहता है
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