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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (४७ है। तात्पर्य यह है कि प्रमाणज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु को ज्ञान में लेकर उसमें से, अपना प्रयोजन जो अहंपना स्थापन करना है वह किसमें करना; इसकी सिद्धि के लिए नित्यपक्ष-ध्रुव को समझना, उसमें द्रव्यार्थिकनय मुख्य होगा। लेकिन हेय के ज्ञान द्वारा आस्रव बंध छोड़ने योग्य एवं उपादेय के ज्ञान द्वारा संवर निर्जरा एवं मोक्षतत्त्व प्रगट करने के प्रयोजन की सिद्धि के लिए, उस ही वस्तु को समझा जावेगा उस समय द्रव्यार्थिकनय का विषय गौण हो जाता है। इसप्रकार मुख्य-गौण की व्यवस्था के द्वारा ही समग्र वस्तु का ज्ञान प्रगट होता है।
हमारा मुख्य विषय है जीवतत्त्व का स्वरूप समझना। ऊपर हमने चर्चा की है कि भगवान अरहंत के जीवद्रव्य का जो पर्याय में प्रगट वर्तमान स्वरूप है, वही मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप है और वह जीवतत्त्व तो द्रव्यार्थिकनय का विषय है। अत: इसके समझने के लिए हमको हमारे ही जीवद्रव्य के अनित्यपक्ष को जो पर्यायार्थिकनय का विषय है, अत्यन्त गौण रखना पड़ेगा। लेकिन भगवान अरहंत के स्वरूप को समझने के लिए प्रमाणज्ञान का आश्रय लेना पड़ेगा। क्योंकि उनका अनित्यपक्ष भी, नित्यपक्ष के समान ही हो चुका है। दोनों में कोई असमानता नहीं रही; अत: मेरे नित्यपक्ष का स्वरूप बताने वाला मॉडल अर्थात् आदर्श अरहंत का आत्मा ही हो सकता है और है भी; क्योंकि मेरे अनित्यपक्ष अर्थात् पर्याय में जो असमानता अथवा विषमता विद्यमान है, उसको मैंने जीवतत्त्व का स्वरूप समझने के लिए अत्यन्त गौण किया हुआ है, इसलिये उस विषमता की उपस्थिति भी मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप समझने में बाधक नहीं हो सकती। तब मेरे सामने तो एकमात्र नित्यपक्ष अर्थात् जीवतत्त्व ही समझने के लिए उपस्थित रह जाता है, जो कि द्रव्यार्थिकनय का विषय
इसप्रकार उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट समझ में आता है कि मुझे मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप समझने के लिए भगवान अरहंत के आत्मा के स्वरूप को समझना ही पड़ेगा, इससे सरल अन्य कोई मार्ग नहीं है। अत: मेरे
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