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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) साथ ही “जीवाजीवास्रव-बंध-संवर- निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्” सूत्र के द्वारा सात तत्त्वों का नामकरण करके परिचय भी करा दिया है । इन्हीं सात तत्त्वों के विशद् विवेचन करने वाली उनकी रचना का नाम तत्त्वार्थ सूत्र है । अत: उपरोक्त सात तत्त्वों के स्वरूप को उम्र रुचिपूर्वक अपनी आत्मिक शान्ति प्राप्त करने के अभिप्राय से एकाग्रचित्त एवं पूर्ण मनोयोगपूर्वक समझना चाहिए, क्योंकि मोक्षमार्ग प्रारम्भ करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
" सुखी होने का उपाय भाग-२” के पृष्ठ ६८ से ८६ तक के विषय को इसी विषय को समझने के लिए अवश्य पुनरावृत्ति कर लेना चाहिए । उक्त विषय की वहाँ " तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" शीर्षक के अन्तर्गत विस्तार से चर्चा की गई है । विस्तार भय से यहाँ पुनः चर्चा नहीं की गई है ।
आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए इन सात तत्त्वों की यथार्थ समझ ही एकमात्र उपाय है । समस्त द्वादशांगवाणी का भी मुख्य उद्देश्य सात तत्त्वों की यथार्थ समझ द्वारा जीव तत्त्व (ज्ञायक धुवभाव) के स्वरूप की पहिचान एवं उसमें अहंपना स्थापन कराने का है। इसलिए जिनवाणी में भी इन सात तत्त्वों पर ही विस्तार से चर्चा है । इस पुस्तक का भी मुख्य उद्देश्य एवं विषय " प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना " यही है। मुझे मेरी आत्मा रागी, द्वेषी, क्रोधी, मानी आदि दिखने पर भी मैं ज्ञानस्वभावी कैसे हूँ इस विषय को अत्यन्त रुचि एवं मनोयोगपूर्वक हमें विस्तार से समझना चाहिये ।
साततत्त्वों को यथार्थ समझने की विधि
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आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के सूत्र ६ में उपरोक्त साततत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को समझने की विधि “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र के द्वारा प्रतिपादित की है। अर्थात् प्रमाण और नयों के द्वारा ही तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझ में आ सकता है।
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