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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (३७ के लिए आत्मार्थी अपने आत्मद्रव्य में ही स्वतत्त्व की खोज करता है। इस खोज के लिए तत्त्व की परिभाषा ही कार्यकारी होती है।। संक्षेप में कहा जावे तो द्रव्य की परिभाषा के द्वारा तो आत्मार्थी को अनुसंधान का क्षेत्र सीमित हो गया, मात्र अपना स्वद्रव्य ही अनुसंधान करने का क्षेत्र है, अन्य कोई भी द्रव्य न तो मुझे शान्ति प्रदान कर सकता है और न ही मेरी शान्ति छीन सकता है ! ऐसी परम स्वाधीनता की श्रद्धा उत्पन्न होकर, भिक्षावृत्ति मिट जाती है और निर्भयता प्रगट हो जाती है। एक स्वद्रव्य की यथार्थ समझ पूर्वक श्रद्धा जागृत होने से, आत्मार्थी को उपरोक्त उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। इसीप्रकार तत्त्व की परिभाषा के द्वारा अपने द्रव्य में ही स्वतत्त्व ज्ञायक ध्रुव) की खोजपूर्वक, पर्यायगत हेय-उपादेयरूप भावों की पहिचान होती है। अपने जीवतत्त्व (ध्रुव) की यथार्थ पहिचान बिना, उपादेयरूप भाव क्या हैं, तथा हेयरूप भाव क्या हैं - इन सबके यथार्थ परिज्ञान बिना आत्मा को शान्ति का मार्ग प्राप्त हो नहीं सकेगा। आत्मा का चरम लक्ष्य तो एकमात्र निराकुलतारूपी सुख व शान्ति प्राप्त करना है। इसप्रकार उपरोक्त परिभाषा के अनुसार हमारे ऊपर दो जिम्मेदारियाँ आ जाती हैं - एक तो जीवतत्त्व का स्वरूप समझना दूसरा जैसा जीवतत्त्व का स्वभाव है उस रूप परिणमन कैसे हो और उसके विपरीत परिणमन क्यों हो रहा है। उसका कारण जानकर कारणों का अभाव कैसे हो? उसके समझे बिना उनका अभाव करना संभव नहीं हो सकेगा। यह बात अवश्य है कि द्रव्य की यथार्थ समझपूर्वक आत्मार्थी जब तक अपने अनुसंधान का क्षेत्र सीमित नहीं कर लेता, तब तक तत्त्व की व्याख्या के माध्यम से स्वतत्त्व को समझने का पुरुषार्थ भी कार्यकारी नहीं हो सकता। अत: अपनी आत्मिक शान्ति अर्थात् निराकुल सुख प्राप्त करने के लिए सारे जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र ज्ञायकध्रुव तत्त्व अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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