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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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समझकर, उनके प्रति ममत्व तोड़कर उपयोग को उनकी ओर से व्यावृत्त करके आत्मसन्मुख होने पर ही आत्मानुभव प्राप्त होता है, इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये दोनों के अन्तर को समझना है ।
द्रव्य की परिभाषा के द्वारा विश्व के छहों द्रव्यों के स्वतंत्र परिणमन की श्रद्धा प्रगट होने से तथा स्व एवं पर के विभागीकरण पूर्वक विश्व के अनन्तानन्त द्रव्यों के परिणमनों में कर्ता बुद्धि का अभाव होकर, आत्मा उनकी ओर से अपने आप में सिमटकर, उनके इष्ट-अनिष्ट परिणमनों के प्रति निर्भर होकर, अपना कार्य मात्र अपने स्वद्रव्य में सीमित कर लेता है ।
अपना कार्यक्षेत्र अर्थात् छहों जाति के अनन्तानन्त द्रव्यों में अपनी परिणति सिमट जाने से पुरुषार्थ का क्षेत्र मात्र अपना अकेला जीवद्रव्य रह गया । अतः उसमें नित्यस्वभावी ध्रुवभाव एवं अनित्यस्वभावी पर्याय, इन दोनों के स्वभावों को समझकर, नित्य ऐसे ध्रुव भाव में अपनापना स्थापन करने हेतु पर्याय का विश्लेषण करता है। आत्मानुभव का मार्ग समझने के लिये तत्त्व की परिभाषा द्वारा अपनी ही पर्याय में स्वाभाविक पर्याय एवं विभाव पर्याय के वर्गीकरण कर, आत्मानुभव के लिये साधनरूप पर्याय को उपादेय करने हेतु एवं आत्मानुभव में बाधक रूप पर्यायों को हेय मानकर, अपने पुरुषार्थ का उद्देश्य प्राप्त करने हेतु, हेय की ओर से व्यावृत्त कर उपादेय की ओर अग्रसर कर आत्मानुभव प्राप्त करने के लिये, निश्चय - व्यवहार के प्रयोग करते हुये पूर्णदशा प्राप्त कर लेना ही इन दोनों परिभाषाओं का यथार्थ उपयोग है और यही अन्तर है 1
सारांश यह है कि द्रव्य की परिभाषा में तो छह द्रव्यों के अनन्तानन्त द्रव्यों में से, स्व-पर का विभागीकरण कर, अपने गुण व विकारी- अविकारी पर्यायों सहित, प्रमाण के विषयभूत अखण्ड द्रव्य में अपनापना स्थापन कराकर, अन्य भाव में परपना श्रद्धा में प्रगट कराने का उद्देश्य होता है । और तत्त्व की परिभाषा में, जिसको पहले स्व के रूप में माना था, उसी
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