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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( १८५
यथार्थत: ज्ञान ज्ञेय के विभागीकरणपूर्वक ज्ञायकतत्त्व में अपनेपन की श्रद्धा उत्पन्न होने का ही यह फल है । प्रवचनसार गाथा १४५ की टीका में ज्ञानज्ञेयविभाग अधिकार प्रारम्भ करते हुये निम्नप्रकार कहा है
टीका - “इसप्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक है उसे वास्तव में, उसमें अंत:पाती होने पर भी, अचिन्त्य ऐसी स्वपर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इसप्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही है और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है; इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है । "
ज्ञानज्ञेय विभाग अधिकार एवं ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार को पूर्ण करते हुये गाथा २०० में आचार्यश्री निम्नप्रकार वर्णन कर इन अधिकारों का समापन करते हैं ।
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“प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ; केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व (समस्त पदार्थों) के साथ ही, सहज ज्ञेयज्ञायकलक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बन्ध नहीं है; इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है। अब एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमशः प्रवर्त्तमान, अनन्त भूतवर्तमान- भावी विचित्र पर्यायसमूहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुये हों इसप्रकार एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेयज्ञायक लक्षण संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्तिवाले ज्ञायकस्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, जो अनादि संसार से इसी स्थिति में (ज्ञायकभावरूप ही रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना माना जाता है उस शुद्धात्मा को यह मैं
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