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________________ १८०) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ सिद्ध होता है कि वास्तव में आत्मा पर को तो नहीं जानता वरन् परज्ञेय के आकाररूप परिणत अपने ही ज्ञानाकारों को जानता है । इसप्रकार आत्मा ही ज्ञाता है, आत्मा ही ज्ञान है और आत्मा ही ज्ञेय है। तीनों की अभेद परिणति ही निश्चय है। इस स्थिति को समझते हुये भी, ज्ञेयों के माध्यम से अपने ही ज्ञानाकारों का, परिचय कराने के लिये आत्मा ने अमुक ज्ञेय का ज्ञान किया - ऐसा उपचार से कथन किया जाता है। इसप्रकार यह कथन भी व्यवहार अपेक्षा सत्य है। इसप्रकार की यथार्थ श्रद्धा उत्पन्न होने से ज्ञान में परसंबंधी ज्ञेयाकार ज्ञात होने पर भी, उनसे मेरा कुछ भी संबंध नहीं है, ये सब तो मेरे ज्ञान की ही कल्लोलें है। ऐसा श्रद्धा-ज्ञान जागृत हो जाता है। इसप्रकार मेरा पन मेरे में ही स्थापन हो जाने से पर के साथ मेरा कोई प्रकार का संबंध सिद्ध नहीं होता।“ नास्तिसर्वोपि सम्बन्धः” सूत्र के अनुसार तो ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी नहीं रहता, तब अन्य संबंध की तो क्या कल्पना की जावे? इसप्रकार यथार्थत: ज्ञाता भी मैं, ज्ञेय भी मैं और ज्ञान भी मैं ही हूँ। इसप्रकार इन्द्रियों का माध्यम छोड़कर ज्ञान सीधा आत्मा से ही कार्य करने लगता है, अत: ऐसा ज्ञान अतीन्द्रिय कहा जाता है। ऐसा ज्ञान जहाज पर. बैठे पक्षी की भांति निराश्रय होकर मात्र एक स्वद्रव्य का ही आश्रय कर अभेद होने का प्रयास करता है। ऐसी दशा में परज्ञेय तो अत्यन्त उपेक्षित रह जाते हैं एवं अपनी जाननक्रिया स्व को जानने के लिये ही चेष्ठित रहती है और ज्ञान-ज्ञेय- ज्ञाता तीनों अभेद हो जाने पर निर्मल अनुभूति प्रगट होकर, वीतरागता का उत्पादन प्रारम्भ हो जाता है। तथा भवभ्रमण का अंत आ जाता है। इसप्रकार अनादिकाल से चली आ रही मोहग्रन्थि टूट जाती है। इसही का समर्थन प्रवचनसार गाथा १९५ की टीका में भी किया है। "मोहग्रन्थि का क्षय करने से, मोहग्रन्थि जिसका मूल है ऐसे राग-द्वोष का क्षय होता है । उससे सुख-दुःख समान हैं, ऐसे जीव को परम मध्यस्थता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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