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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१४७ वाला ज्ञान तो अकेला एक ज्ञानतत्त्व है और ज्ञेय कहा जाता है सारा लोकालोक । अत: वह लोकालोक को कैसे जानेगा? उत्तर - ज्ञानतत्त्व के विषय तो वे ही हो सकेंगे, जिनमें प्रमेयत्व (ज्ञान में ज्ञात होने योग्य शक्ति) गुण हो, कारण जिनमें ज्ञान का विषय बनने की योग्यता होगी, वे ही तो ज्ञान का विषय बन सकेंगे। प्रमेयत्वगुण, सामान्यगुण है। अत: वह हर एक द्रव्य में विद्यमान है; यथा अनन्त जीवद्रव्य जिनमें मेरा आत्मा भी सम्मिलित है, अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य एवं असंख्य कालाणु इसप्रकार अनन्तानन्त की संख्या के सभी द्रव्यों में यह प्रमेयत्वगुण विद्यमान है। फलत: सभी ज्ञान का विषय बनने की योग्यता रखते हैं और ज्ञानगुण में सबको जानने की योग्यता है । सामर्थ्य की तो मर्यादा नहीं होती। अत: जीवद्रव्य के ज्ञान का सामर्थ्य तो गुण पर्यायों सहित सम्पूर्ण द्रव्यों को जानने का होना चाहिये, इसमें कोई विशेषता नहीं है। इसका साक्षात् प्रमाण भगवान अरहंत की आत्मा है। भगवान अरहंत का ज्ञान, जिनमें ज्ञेयत्व (प्रमेयत्व) गुण विद्यमान है, उन सभी को जानता है, अत: सिद्ध होता है कि ज्ञान लोकालोक को जानता ही है। प्रश्न - गुण पर्यायों का समुदाय रूप एक पदार्थ है। उनमें से ज्ञान का विषय कौन माना जावे? जिसको ज्ञेय.कहा जा सके? उत्तर - जिसमें प्रमेयत्वगुण हो ऐसा द्रव्य ही तो ज्ञान का विषय बन सकेगा? गुण और पर्याय भी तो उस द्रव्य के ही अंग हैं। द्रव्य के अंग होने से, उनमें ज्ञेयत्व (प्रमेयत्व) गुण व्यापने से वे भी ज्ञेयत्व को प्राप्त हैं। लेकिन द्रव्य के ज्ञेय होने से गुण पर्याय भी उसके अंग होने से, वे भी ज्ञात होते हैं; क्योंकि वे द्रव्य से अभिन्न हैं। ऐसे अभिन्न पदार्थ को जानना ही मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत है। प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व अधिकार के श्लोक ६ के द्वारा ज्ञेयतत्त्व क्या है, यह स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञेय तो द्रव्य-गुण-पर्यायरूप पदार्थ है, जिसके जानने से मोह (मिथ्यात्व) उत्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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