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________________ १४४ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ संबंधी ज्ञान भी दोष का उत्पादक नहीं है, दोष का कारण तो अज्ञानी को मात्र अपने स्वरूप में अपनेपन का अभावरूप अज्ञान ही है । इस अज्ञान के अभाव करने का उपाय मात्र एक ही है कि अपने में अपनेपन की मान्यता के साथ परज्ञेयों का यथार्थ स्वरूप समझ में आ जावे। दोनों का यथार्थ स्वरूप समझकर तद्रूप परिणमन ही इस सारी समस्या का समाधान हो सकता है । अतः मुझे ज्ञानतत्त्व के स्वरूप समझने के साथ ही साथ ज्ञेय तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को भी समझना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । ज्ञेयतत्त्व का स्वरूप क्या है ? ज्ञेय का सामान्य लक्षण तो इतना मात्र ही है कि जिनमें ज्ञेयत्व (प्रमेयत्व) गुण हो, वे सब ही ज्ञेय हैं। क्योंकि प्रमेयत्व का अस्तित्व ही इस बात को सिद्ध करता है कि उसको जानने वाली सामर्थ्य विशेष अर्थात् ज्ञान की सत्ता होनी ही चाहिए। ज्ञान की सत्ता भी इस तथ्य को सिद्ध करती है कि जगत में ज्ञेय की सत्ता भी होना ही चाहिए। इसप्रकार विश्व के छहों द्रव्य ज्ञेय हैं, उनमें मेरा आत्मा भी सम्मिलित है । प्रमेयत्व गुण सामान्य गुण है, वह तो द्रव्य मात्र में विद्यमान रहता है, ज्ञान गुण विशेष गुण है वह तो जीव में ही मिलेगा। मेरे आत्मा में दोनों गुण होने से वह तो ज्ञायक भी है एवं ज्ञेय भी है । अतः स्पष्ट है कि जब ज्ञान का धारक ज्ञायक मैं स्वयं ही हूँ तो, मेरे ज्ञान के ज्ञेय भी अपने-अपने गुण पर्यायों सहित जगत के सब ही द्रव्य हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि आत्मा में ज्ञानगुण एवं प्रमेयत्वगुण दोनों ही होने से आत्मा तो ज्ञेयतत्त्व भी है और ज्ञायक भी है 1 प्रवचनसार गाथा १४५ की टीका द्वारा इसका समर्थन प्राप्त होता 1 " इसप्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश पदार्थ से लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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