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________________ सार संक्षेप ) (१३ पहिचानकर ; अन्य पदार्थों के साथ अपनी कल्पना से माने हुए सम्बन्धों को तोड़कर, अपनी, अन्य सबकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकारते हुए, अपने-आप में निम्नप्रकार की श्रद्धा जागृत करने का उपाय बताया गया है। __“जगत के सभी द्रव्य उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तंसत् हैं" उन्हीं में मैं भी स्वयं एक सत् हूँ। मेरी सत्ता मेरे स्वचतुष्टय में है अन्य की सत्ता उनके स्वचतुष्टय में है। अत: मेरी सत्ता में किसी का प्रवेश-हस्तक्षेप है ही नहीं एवं हो भी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में जगत के किसी भी द्रव्य के कार्यों में किसी प्रकार का भी हस्तक्षेप करने का अधिकार मुझे भी नहीं हो सकता। इसप्रकार जगत के सभी द्रव्यों के परिणमनों से मेरा सम्बन्ध नहीं होने के कारण, वे मेरे लिए उपेक्षणीय एवं ज्ञेयमात्र हैं। अत: वे मेरे लिए किसी प्रकार की आकुलता उत्पन्न करने के कारण भी नहीं रहते। मेरी आत्मा का भला अथवा बुरा अर्थात् हानि अथवा लाभ पहुंचाने वाला एकमात्र मैं स्वयं ही हूँ, उसीप्रकार मेरा सुधार भी मैं स्वयं ही कर सकता हूँ। अत: मेरे कल्याण के लिए मुझे मेरे में ही अनुसंधान करके यथार्थ मार्ग खोजना पड़ेगा एवं अपने में ही प्रगति करनी पड़ेगी। उपर्युक्त श्रद्धा जागृत कर लेने पर आत्मार्थी अपने आत्मद्रव्य में ही यथार्थ मार्ग खोजना प्रारम्भ करता है। अत: इस पुस्तक के भाग २ में "आत्मा की अन्तर्दशा, तत्त्वनिर्णय एवं भेदविज्ञान" इस शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा में अनुसंधान करने का उपाय बताया गया है। __ मोक्षमार्ग में पाँच लब्धियों की जानकारी की उपयोगिता, चारों अनुयोगों के अर्थ समझने की पद्धति, यथार्थ तत्त्वनिर्णय का महत्व आदि विषयों द्वारा तत्त्वनिर्णय की आवश्यकता उक्त पुस्तक में सिद्ध की है। सात तत्त्वों के स्वरूप का यथार्थ मर्म समझकर, उनमें एकमात्र त्रिकाली पारिणामिकभावरूप ध्रुवतत्त्व तो मैं जीवतत्त्व हूँ, अन्य जितने भी पदार्थ हैं वे सब मेरे लिए परज्ञेयरूप अजीवतत्त्व हैं, मेरी ही पर्याय में उत्पन्न होने वाले आस्रव एवं बंध भाव हेय तत्त्व हैं, संवर-निर्जरा के भाव उपादेय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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