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________________ १३८ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ अपने स्वामी को छोड़कर परसंबंधी ज्ञेयाकारों को ही जानने को उद्यत क्यों होती है ? उत्तर अनादिकाल से अज्ञानी जीव को उपरोक्त ज्ञानस्वभावी आत्मा की एवं उसकी ज्ञानक्रिया की, स्वाभाविक स्थिति का ज्ञान श्रद्धान यथार्थ नहीं है। इसके अभाव में ज्ञानतत्त्व में संतोषवृत्ति कैसे हो सकती है ? Gra प्राणी मात्र को सुख चाहिये, सुख की तीव्र पिपासा होने से उसे प्राप्त करने की खोज में भटकना भी स्वाभाविक है । सुख एवं अपने स्वरूप के यथार्थ ज्ञान श्रद्धान के अभाव में, उपायों का भी ज्ञान श्रद्धान यथार्थ कैसे हो सकेगा ? अपना सुख तो अपने में ही है, उसमें से ही आवेगा; आत्मा स्वयं सुखस्वरूप है, सुख का खजाना है; ऐसा विश्वास जागृत होते ही ज्ञानतत्त्व में संतोषवृत्ति उत्पन्न हो सकेगी। फलत: ज्ञान पर्याय अपने स्वामी को छोड़कर, परसन्मुखता का प्रयास भी क्यों करेगी? और जब परसन्मुखवृत्ति ही उत्पन्न नहीं होगी तब सुख प्राप्त करने की खोज में परज्ञेयाकारों में भटकना स्वतः ही समाप्त होकर आकुलता उत्पन्न होने का अवसर ही समाप्त हो जावेगा । ऐसी स्थिति में अपने आपमें तृप्त रहते हुए आत्मा अनाकुलित आनन्द का उपभोक्ता बना रहेगा । निष्कर्ष यह है कि उपरोक्त ज्ञानतत्त्व का एवं उसकी कार्यप्रणाली का यथार्थ ज्ञान श्रद्धान नहीं होने से अज्ञानीजीव अपने ज्ञानतत्त्व को छोडकर, परसंबंधी ज्ञेयाकारों में से सुख प्राप्त करने के लिए भटकता फिरता है, उनमें सुख है ही नहीं तो वह प्राप्त भी कैसे होता ? फलत: निरन्तर आकुलता को ही प्राप्त करता हुआ दुःखी ही बना रहता है । यह हीं अनादिकाल से दुःखी रहते हुए परिभ्रमण करते रहने की कहानी है । तात्पर्य यह है कि आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञानी को सर्वप्रथम अपने ज्ञानतत्त्व का एवं उसकी कार्यप्रणाली का यथार्थ ज्ञान व श्रद्धान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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