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________________ १३४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ उपरोक्त ज्ञानतत्त्व ही वास्तविक ज्ञानतत्त्व है और वही उसका स्वरूप है मेरा ज्ञानतत्त्व (ध्रुवतत्त्व) भी वैसा ही है और वही मेरा स्वरूप भी है। भगवान अरहंत में और मेरे में, अन्तर तो मात्र इतना ही है कि उनका उपयोग किसी भी ज्ञेय से सम्बन्ध नहीं जोड़ता। ज्ञानतत्त्व तो मेरा भी उनके समान ही है, उनके ज्ञानतत्त्व में और मेरे में किंचितमात्र भी अन्तर नहीं है। लेकिन मेरा उपयोग अपने आप में ही सिमटकर रहना चाहिए था वह ज्ञेयों के सन्मुख होकर सम्बन्ध जोड़ लेता है तथा अपने ज्ञानतत्त्व में संतोषवृत्ति के बजाय ज्ञेयों के साथ मित्रता कर लेता है। फलत: इच्छित ज्ञेयों को रखने एवं अनिच्छित ज्ञेयों को हटाने के निष्फल प्रयत्नों में संलग्न होकर आकुलित आकुलित बना रहता है। प्रश्न - इस अन्तर को दूर करने का उपाय क्या है? उत्तर - अन्तर का अभाव तो हो सकता है, हुआ भी है और जो यथार्थमार्ग अपनाएगा वह अवश्य दूर कर भी सकेगा। वर्तमान में जो अरहंत हैं वे भी भूतकाल में तो हमारे जैसे ही थे, उनने भी इस अन्तर का अभाव करके ही तो अरहंतपना प्राप्त किया है। उक्त अन्तर को दूर करने का उपाय भी अत्यन्त सरल है। सरल होते हुए भी, अज्ञानी ने अपनी उल्टी मान्यता के कारण उस उपाय को कठिन बना रखा है। वास्तविक स्थिति तो यह है कि हर एक द्रव्य की पर्यायों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तो सबका अपना-अपना द्रव्य ही है। द्रव्य पर्याय से और पर्याय द्रव्य से कभी अलग नहीं हो सकते, अत: इस आत्मा की ज्ञानपर्याय का द्रव्य, क्षेत्र, काल सब, अपना आत्मा ही तो होता है । यद्यपि आत्मा का ज्ञान स्व-परप्रकाशी है और आत्मा के ज्ञान में स्व एवं पर दोनों ही एक साथ प्रतिभासित भी होते हैं और ज्ञानपर्याय तो आत्मद्रव्य की ही है, पर की तो है नहीं। पर्याय का कार्य तो अपने स्वामी को जानना है, परसंबंधी ज्ञेयाकार ज्ञान में होते हुए भी उनमें अटकने का स्वभाव तो ज्ञान का है नहीं। अपने स्वामी को जानने में तो सहज रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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