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________________ १२८) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ रूप में जानता रहता है और चारित्र भी अपने आप में ही परिपूर्ण लीनता स्थिरता करता है फलत: आत्मा के अन्य गुण भी आत्मा में ही तन्मयता करते रहते हैं । अरहंत भगवान स्व-पर को एकसाथ जानते हुए भी अपने आनन्द की अनुभूति का ही निरन्तर स्वाद लेते रहते हैं। पण्डित दौलतरामजी ने भी कहा है कि - "सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन" इसीप्रकार पण्डित भागचन्दजी ने भी एक पद में कहा है कि -- “अप्रमेय ज्ञेयनि के ज्ञायक, नहिं परिणमति तदपि ज्ञेयनि में। देखत नयन अनेक रूप जिम, मिलत नहीं पुनि निज विषयनि में। निज उपयोग आपने स्वामी, गाल दियो निश्चल आपुनि में। है असमर्थ बाह्य निकसनिकों, लवण धुला जैसे जीवन में।" ___ इसप्रकार अरहंत भगवान को अपने ज्ञायक स्वतत्त्व में अपनापन होने से पूर्ण सुखी हैं उनका उपयोग अपने आप में ही तन्मय होकर वर्तता है और पर को जानते हुए भी पर के साथ किंचित मात्र भी कोई प्रकार का संबंध नहीं जोड़ते। प्रवचनसार गाथा ६० के भावार्थ में भी कहा है कि - “केवलज्ञान समस्त त्रैकालिक लोकालोक के आकार को (समस्त पदार्थों के त्रैकालिक ज्ञेयाकार समूह को) सर्वदा अडोलरूप से जानता हुआ अत्यन्त निष्कंप-स्थिर-अक्षुब्ध-अनाकुल है; और अनाकुल होने से सुखी है - सुख स्वरूप है, क्योंकि अनाकुलता सुख का ही लक्षण है। इसप्रकार केवलज्ञान और अक्षुब्धता-अनाकुलता भिन्न नहीं होने से केवलज्ञान और सुख भिन्न नहीं हैं।" इसीप्रकार गाथा १३ में भी कहा है कि - "शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का (केवली और सिद्धों का) सुख, अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत (अतीन्द्रिय) अनुपम, अनन्त (अविनाशी) और अविच्छिन्न (अटूट) है।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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