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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ११९ खोजना चाहते हैं, वह कौन है ? यथार्थ उत्तरदायी खोज लेने पर उस रोग का उपचार भी संभव हो सकेगा और हमारा रोग भी दूर हो सकेगा । अन्यथा वह रोग दूर नहीं हो सकेगा, अतः हमको आत्मा की पर्याय की स्थिति स्पष्ट समझना चाहिए । उक्त दृष्टिकोण से विचार करें तो आत्मा के ज्ञान का स्वभाव तो स्वपरप्रकाशक है । वह तो किसी के साथ कोई प्रकार का सम्बन्ध जोड़े बिना सबसे निरपेक्ष रहते हुए सहजरूप से स्व एवं पर को प्रकाशित करने मात्र का कार्य करता है । जैसा प्रवचनसार गाथा ४२ में कहा है - 'निर्विकार सहज आनन्द में लीन रहकर सहजरूप से जानते रहना वही ज्ञान का स्वरूप है, ज्ञेय पदार्थों में रुकना, उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है ।” इससे यह निर्णय होता है कि ज्ञेयो के साथ सम्बन्ध जोड़ने का कार्य ज्ञान का नहीं होकर किसी अन्य का ही है 1 > आत्मा में ज्ञान के अतिरिक्त अन्य गुणों में एक श्रद्धा एवं एक चारित्र नाम का गुण भी है। इन दोनों गुणों के कार्य भी अपने-अपने भित्र-भिन्न हैं । ज्ञान में जो पर ज्ञेय के रूप में प्रतिभासित हो रहे हैं, उनमें से, किसी एक को अपना मानें अर्थात् उसमें अपनेपन की मान्यता स्थापन कं, यह श्रद्धा गुण का कार्य है । चारित्र गुण का कार्य है कि जिसमें श्रद्धा ने अपनापन स्थापन किया उस ही में लीन होकर परिणमने लगना । वास्तव में राग का उत्पादक कौन ? उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ज्ञान को राग का उत्पादक मानना तो स्पष्ट अज्ञान है। तब सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि राग का उत्पादक कौन है ? इस प्रश्न के समाधान स्वरूप समयसार गाथा ३७१ की टीका में आचार्यश्री ने स्वयं प्रश्न उठाकर समाधान दिया है, वह निम्नप्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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