SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ में ज्ञान को ज्ञेयकृत पराधीनता सिद्ध हो ही नहीं सकती। ऐसे ही पवित्र सम्बन्ध को आगम में ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध कहा है। वास्तविकता तो यह है कि आत्मा का किसी के साथ कोई प्रकार का सम्बन्ध है ही नहीं। समयसार ग्रन्थ के सर्वविशुद्धिज्ञान अधिकार में कलश २०० के द्वारा कहा भी है कि - नास्ति सर्वोपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ।। अर्थ - परद्रव्य और आत्मतत्त्व को कोई भी संबंध नहीं है; इसप्रकार कर्तृत्व-कर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से, आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है? समयसार कलश २२२के अर्थ में भी स्पष्ट किया है कि ज्ञेयों का ज्ञान आत्मा को विकारी नहीं कर सकता। अर्थ - पूर्ण, एक, अच्युत और शुद्ध निर्विकार ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा ज्ञेय पदार्थों से किंचित मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, जैसे दीपक प्रकाश्य (प्रकाशित होने योग्य घटपटादि) पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। । उक्त समस्त कथन का तात्पर्य यह है कि ज्ञेय का ज्ञान वर्तते हुए भी ज्ञान का परिणमन तो ज्ञेय से निरपेक्ष ही वर्तता रहता है। ऐसी वस्तुस्थिति समझ में आ जाने पर, अपने स्वभाव एवं हर एक पर्याय की स्वतंत्रता का विश्वास प्रगट होकर, अपने स्वभाव की उत्कृष्ट महिमा जागृत होती है। पूर्णता प्राप्त करने के लिए पर की ओर की भिक्षावृत्ति समाप्त होने लगती है। अपनी शान्ति सुख प्राप्त करने के लिए पर का आकर्षण तो दूर, पर की ओर झांकने का भी उत्साह नहीं रहता। पर के कर्तृत्व का भारी बोझा समाप्तप्राय: होने लगता है। फलत: ऐसा आत्मा अपने को अत्यन्त निर्भार अनुभव करते हुए आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ प्रारम्भ कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy