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( सुखी होने का उपाय भाग-४ __ कारागार में बन्द कोई कामी कहता है कि यद्यपि कारागार का द्वार बन्द है और अन्धकार इतना सघन है कि सुई के अग्रभाग (नोक) से भी नहीं भेदा जा सकता तथा मैंने अपने दोनों नेत्र बन्द कर रखे हैं, तथापि मुझे अपनी प्रिया का मुख स्पष्ट दिखाई दे रहा है।' ।
इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञेय के अनुसार ज्ञान नहीं होता, अपितु ज्ञान के अनुसार ज्ञेय जाना जाता है। इसका तात्पर्य सह है कि क्षयोपशम ज्ञान में जिस समय जिस ज्ञेय को जानने की योग्यता होती है, उस समय वही ज्ञेय ज्ञान का विषय बनता है, अन्य नहीं।
इस बात को न्यायशास्त्र के परीक्षामुख ग्रन्थ अध्याय २ के निम्न लिखित सूत्र से भलीप्रकार समझा जा सकता है - 'स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥ ९॥' ।
'स्वावरणक्षयोपशम है लक्षण जिसका - ऐसी योग्यता ही यह व्यवस्था करती है कि ज्ञान किसको जाने।'
यहाँ क्षयोपशम ज्ञान किसको जाने और किसको न जाने इसकी चर्चा चल रही है। केवलज्ञान में तो यह प्रश्न ही सम्भव नहीं है, क्योंकि वह तो एक समय में ही लोकालोक को जानता है।
बौद्धों का यह कहना है कि ज्ञान, ज्ञेय से उत्पन्न होता है, ज्ञेयाकार होता है और ज्ञेयों को जानने वाला होता है; जिसे वे तदुत्पत्ति, तदाकार
और तदध्यवसाय के रूप में प्रस्तुत करते हैं। जैनों को उक्त बात स्वीकार नहीं है।
इस सन्दर्भ में वे जैनों से पूछते हैं कि यदि ज्ञान ज्ञेय से उत्पन्न नहीं होता तो फिर तुम्हारे यहाँ ज्ञान अमुक ज्ञेय को ही क्यों जाने, अन्य को क्यों नहीं - इसका नियामक कौन होगा? बौद्धों के यहाँ तो जो ज्ञान जिस ज्ञेय से उत्पन्न होता है, उसी को जानता है - यह व्यवस्था है। जैनों में इस सन्दर्भ में क्या व्यवस्था है, इसके उत्तर में उक्त सूत्र आया है। जिसका आशय है कि योग्यता ही इसकी नियामक है अर्थात् ज्ञान की
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