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________________ ८०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ वह तो समझ में आया, लेकिन पर्याय का अभाव ही क्यों नहीं मान लिया जावे? समाधान - सत् के दो प्रकार हैं। – एक तो द्रव्यसत् और एक पर्यायसत् । द्रव्यसत् तो अपरिवर्तनीय, ध्रुवद्रव्य है। पर्यायसत् उत्पाद, व्यय पलटता हुआ, मात्र एक- एक समय का सत् है । सारांश यह है कि द्रव्य त्रिकाली सत् है और पर्याय एक समय की मर्यादा मात्र का सत् है । सत् का स्वभाव ही ऐसा है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये किसी की अपेक्षा नहीं रखता, निरपेक्ष रूप से सत् है। पंचाध्यायीकार ने कहा भी है - तत्वं सत्लाक्षणिकं, सन्मानं वा यत: स्वत:सिद्धं । तस्मादनादिनिधनं, स्वसहायं, निर्विकल्पं च ।। अर्थ – “तत्त्व अर्थात् पदार्थ सत्लक्षणवाला है, सत् मात्र है, इसलिये स्वत: सिद्ध है, अत: अनादिनिधन, स्वसहाय एवं निर्विकल्प भी है।” इसप्रकार सिद्ध होता है कि द्रव्य तो सत् है ही लेकिन पर्याय भी द्रव्य के समान ही सत् है। सत् की सत्ता तो निरपेक्ष ही होती है। अत: पर्याय का काल मात्र एक समय भले ही हो लेकिन उस समय उसका उत्पाद तो निरपेक्षरूप ही होता है। उसके अस्तित्व में अन्य कोई सत् न तो हस्तक्षेप कर सकता है और न प्रवाहक्रम को रोक सकता है। अत: सिद्ध है कि पर्याय अपने उत्पाद काल में निरपेक्ष रूप से अपनी योग्यतानुसार परिणमती ही रहती है। प्रवचनसार गाथा १०२ की टीका से भी इसी का समर्थन प्राप्त होता है। “द्रव्य की स्थितिक्षण के साथ-साथ हर एक पर्याय का अपना-अपना नियत जन्मक्षण है एवं व्ययक्षण है," उस ही समय वह पर्याय उत्पाद व्यय करती ही रहेगी। ऐसा ही पर्याय-सत् का अनादि से नियत प्रवाहक्रम चला आ रहा है एवं अनन्त काल तक चलता ही रहेगा। इसी प्रवाहक्रम को क्रमबद्ध पर्याय के नाम से भी कह दिया जाता है। किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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