SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७३ नय एवं दृष्टि का अन्तर) को भी जान लेता है। स्व में स्थित स्व तथा पर सम्बन्धी ज्ञेयाकार एक साथ उपस्थित रहते हुए भी, छद्मस्थ का ज्ञान दोनों को एक साथ नहीं जान पाता। इसलिये जानते समय ही एक को मुख्य बनाकर जान सकता है। उस समय अन्य पक्ष स्वत: गौण रह जाता है। जिसको ज्ञान स्व जानता है वह विषय मुख्य हो जाने से उसको मुख्यता से जानती हुई ज्ञानपर्याय उत्पन्न होती है। अत: ज्ञानी को दूसरा पक्ष पर होने से स्वत: उपेक्षित रह जाता है उपेक्षित करना नहीं पड़ता। स्व-पर को, मुख्य गौण करने अथवा हेय उपादेय संबंधी विकल्प करने नहीं पड़ते पूर्व निर्णय के अनुसार स्व में स्वपने की श्रद्धा होने से, ज्ञानी की पर्याय भेदपूर्वक ही उत्पन्न होती है। __ आत्मा की स्वाभाविक प्रक्रिया समझ में नहीं आने से, ऐसी श्रद्धा अनादिकाल से कभी भी जाग्रत नहीं हुई। जिस समय स्व को स्व के रूप में ज्ञानपर्याय ज्ञेय बनावे तो वर्तमान में ही आत्मा अरहंत जैसा ज्ञान श्रद्धान में प्रगट हो जावेगा। नय एवं दृष्टि का अन्तर द्रव्यदृष्टि एवं द्रव्यार्थिकनय का अन्तर ज्ञान की जो पर्याय अनन्त गुणों के समुदाय रूप अभेद ध्रुव द्रव्य को स्व के रूप में अपना विषय बनाती है, ज्ञान की उस पर्याय का नाम द्रव्यार्थिकनय है। उस पर्याय के विषय का नाम द्रव्यार्थिकनय का विषय द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत त्रिकाली ध्रुव स्वभावी अपरिणामी ज्ञायक ऐसा द्रव्य है । उसको समझकर श्रद्धा अपना श्रद्धेय अर्थात् उसमें अहंपना, अपनापन स्थापित करती है, उस श्रद्धागुण की पर्याय को द्रव्यदृष्टि कहते हैं। द्रव्यदृष्टि ने जिस अभेद स्थाई ध्रुवतत्त्व में अहंपना स्थापन किया वह अभेद त्रिकाली भाव ही द्रव्यदृष्टि का विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy