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________________ अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) (६७ उपरोक्त कथन का अभिप्राय ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि भावकर्म को पर अथवा परकृत मान लेने से आत्मा भावकर्म का अपराधी नहीं है । भावकर्म आत्मा की ही पर्यायें हैं लेकिन जब तक उनमें अपनेपन की मान्यता रहेगी, तब तक हेय बुद्धि तथा उसके अभाव करने का भाव ही नहीं होगा। इसलिए उनमें अपनेपने का अभाव करना अनिवार्य है, ऐसा होते ही रागादि का क्षीण होना प्रारम्भ हो जाता है। फिर भी जब तक पूर्ण वीतरागी न हो तब तक अपनत्व रहित के रागादि ज्ञानी को भी उत्पन्न होंगे और उसके ज्ञान में ज्ञात भी होंगे और उत्पन्न होने को अपना अपराध भी मानेगा तथा निरन्तर अभाव करने का पुरुषार्थ भी करता रहेगा। पुरुषार्थ भी यही है कि त्रिकाली ज्ञायक में आकर्षण बढ़ाते हुए पर के प्रति आसक्ति तोड़ना यह ही उनके अभाव करने का पुरुषार्थ है। इसप्रकार उनके उत्पादन की श्रृंखला तोड़कर पूर्ण वीतरागी बन सकता इसलिए द्रव्यकर्मों एवं भावकर्मों तथा अपनी पर्यायों से अपनेपन का संबंध छोड़कर निर्भार हो जाना चाहिए। वास्तव में मैं तो त्रिकाली ध्रुवतत्त्व हूँ और पर्यायें तो अनित्यस्वभावी हैं। विकारी दशा में वे आस्रव बंध रूप थीं तब भी तथा संवर निर्जरा मोक्ष रूप हो जावें तब भी, रहेगी तो अनित्य स्वभावी ही। इसलिए जब तक उनके प्रति आकर्षण रहेगा राग की उत्पत्ति होगी। इसलिए मैं तो मात्र अकर्ता ज्ञायकतत्त्व हूँ। पर्याय को शुद्ध होना हो तो वह मेरा आश्रय ले तो स्वयं वे शुद्धता प्राप्त कर लेगी। मुझे तो पर्याय को भी शुद्ध करने की जिम्मेदारी नहीं है। पर्याय ध्रुव के जैसी शुद्ध हो जावेगी तो वह भी अभेद होकर अनन्त काल तक मेरे भण्डार को भोगने का आनन्द प्राप्त कर लेगी। उपरोक्त प्रकार से अपनी परिणति को सब तरफ से समेटकर सिद्धस्वभावी त्रिकाली ध्रुवतत्त्व में अपनापन स्थापन करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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