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________________ ६४) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ बुरा हो जावेगा। इसलिए वीतरागता उत्पन्न करने के उद्देश्य पूर्वक सत्यार्थ उपदेश का मर्म समझकर ध्रुवस्वभावरूप अपना अस्तित्व मानकर परज्ञेय मात्र में अपनेपने का अभाव करना चाहिए। पर्याय से अपनापना कैसे छुटे ? वास्तव में पर्याय तो द्रव्य का अभिन्न अंग है, इसलिए उसे द्रव्य से बाहर करना नहीं है; मात्र उससे एकत्व अर्थात् अपनापना मानना छोड़ना है। कारण मेरा प्रयोजन तो पूर्ण वीतरागता प्रगट कर भगवान बनना है, उसमें जो भी बाधक हो वे सब हेय मानने योग्य है। इसलिए पर्याय का प्रेम छोड़ना ही प्रयोजनभूत है। ____ मैं तो नित्य स्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ और पर्यायें सभी एक समयवर्ती अनित्यस्वभावी हैं, इसलिए दोनों के स्वभाव विपरीत होने से मैं पर्याय को अपना नहीं मान सकता। तीसरी अपेक्षा यह भी है कि पर्याय के साथ एकत्व रखने से पर्याय में शुद्धि नहीं हो सकेगी, रागादि के उत्पादन का रक्षण पोषण ही होता रहेगा। उसमें अपनापन तोड़कर उपेक्षावृत्ति उत्पन्न होने से तो परिणति सिमटकर आत्मलक्ष्यी हो जावेगी; फलस्वरूप पर्याय में भी शुद्धि होना प्रारम्भ हो जावेगा। अर्थात् वीतरागता का उत्पादन प्रारम्भ हो जावेगा। इसप्रकार पर्याय की ओर से भी परिणति को समेटकर, आत्मलक्ष्यी करने से, आत्मानुभव प्राप्त करने की क्षमता प्रगट हो जाती है। मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञानी हो जाने पर भी भावकर्म तो ज्ञानी के भी होते हैं लेकिन वे मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी रहित, मात्र चारित्र मोह से होते हैं। ज्ञानी का ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। जो ज्ञान पूर्व में मात्र पर को प्रकाशता था, वही ज्ञान अब स्व-पर दोनों को प्रकाशने लग जाता है। उसमें स्व तो अपना त्रिकाली ज्ञायक भासने लगता है Jain Education International For Private & Personal Use Only .. www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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