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________________ अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) (५७ लेता है । इसीकारण ऐसे कथन को जिनवाणी में असद्भूत व्यवहारनय के विषय कहा है: आत्मा किसीप्रकार भी इनका कर्ता-धर्ता नहीं है। लेकिन भावकर्मों की स्थिति इनसे भिन्न प्रकार की हैं। भावकर्म तो जीवद्रव्य की पर्यायें हैं। ये तो चेतन जीव द्रव्य की चेतन पर्यायें हैं, इसलिए इनके संबंध को जिनवाणी में सद्भूत नय का विषय कहा है; लेकिन ये आत्मा के स्वाभाविक परिणमन नहीं होने से व्यवहार कहकर ऐसे संबंध को हेय बताया है। I इसलिए जिसप्रकार असद्भूत नय के विषयों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध मानना आत्मा को छोड़ना है, लेकिन भावकर्मों से तो मात्र अपनत्व छोड़ना है । ये भावकर्म मेरे ही द्रव्य की सत्ता में उत्पन्न होते हैं और इनके विभावरूप परिणमन से आत्मा का अहित भी हो रहा है इसलिये इनको अपना एवं हितकर नहीं माना जा सकता। इसप्रकार भावकर्मों का अपने में सद्भाव स्वीकारते हुए भी, उनको शुद्ध करने के लिए अर्थात् विभावपने का अभाव करके स्वाभाविक बनाने के लिए उनका स्वामित्व छोड़कर पर ही मानना पड़ेगा। जैसे किसी व्यक्ति ने किसी को अपना मित्र मान रखा हो और फिर उसे विश्वास हो जावे कि वास्तव में यह तो मेरा शत्रु है; तो सर्वप्रथम उसके साथ अपने मित्र होने के भाव का अभाव होगा तत्पश्चात् उसके साथ सहज ही सम्बन्ध छूट जावेगा, छूटे बिना रह ही नहीं सकता। इसीप्रकार भावकर्मों के साथ अपनेपने की मान्यता छोड़नी है; अपने शत्रु को मित्र मान लेना जितनी भयंकर भूल है वैसी ही यह मान्यता है। ये सब तो हेय तत्त्व हैं, उनसे प्रेम कैसा? अपनापन छोड़ने पर उनका उत्पन्न होना सहज ही रुक जावेगा अर्थात् संवर हो जावेगा । फलस्वरूप स्वाभाविक पर्यायें उत्पन्न होने लग जावेगी इसप्रकार हमारा प्रयोजन सफल हो जावेगा । अन्य प्रकार से विचार किया जावे तो हर एक आत्मार्थी की भावकर्मों के अभाव करने की भावना तो सहज रूप से होती ही है लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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