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________________ प्रश्न ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ आत्मा का जब स्व पर को जानने का स्वभाव ही है तो, पर के जानने में ज्ञान उपयुक्त होने पर रागादि की उत्पत्ति एवं स्व को जानने में रागादि का अभाव होकर वीतरागता की उत्पत्ति होती हैऐसा जिनवाणी में क्यों कहा गया है ? ३४ ) उत्तर कथन का अभिप्राय यथार्थ समझना चाहिए। पर के जानने मात्र से राग नहीं होता, वरन् जानने वाले जीव की ज्ञेय के प्रति एकत्व बुद्धि के कारण राग होता है, जानने से नहीं होता। अगर जानने से राग होता तो केवली भगवान तो लोकालोक को जानते है अत: उनको तो बहुत राग हो जाना चाहिए था। तथा अज्ञानी को एवं मुनिराज दोनों को एकसा राग होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता । तात्पर्य यह है कि पर को जानने मात्र से राग का उत्पादन नहीं होता । सग के उत्पादन का कारण तो अज्ञानी का अज्ञान ( मिथ्या मान्यता) एवं ज्ञानी को स्व में स्थिरता की कमी अर्थात् चारित्र की कमी है। । वास्तविक स्थिति तो ऐसी है कि ज्ञान का कार्य तो स्व तथा पर को मात्र जानना ही है । स्व को स्व के रूप में जान लेना और पर को पर के रूप में जान लेना है। लेकिन पर को स्व मान लेना यह कार्य तो श्रद्धा की विपरीतता का है; इसमें ज्ञान को दोषी नहीं कहा जा सकता। ज्ञानी होने पर ज्ञान ने स्व को स्व के रूप में निर्णय कर लिया तो श्रद्धा ने उसी समय स्व को स्व मान लिया, श्रद्धा भी सम्यक् हो गई तो चारित्र भी स्व में ही लीन हो गया तो स्व में तो किसीप्रकार का द्वैत है ही नहीं, अतः स्व में लीनता होने पर, आत्मा निर्विकल्प होकर आंशिक वीतरागता प्रगट कर अतीन्द्रिय आनन्द के अंश का अनुभव कर लेता है। इसके विपरीत अज्ञानी के ज्ञान ने तो पर को ही स्व के रूप में निर्णय कर लिया है, फलतः उसी समय श्रद्धा गुण ने स्व की उपेक्षा कर जो पर है उसको ही स्व मान लिया। उसकी श्रद्धा (मान्यता) विपरीत होने से ज्ञान का जानना भी हो गया। विचार किया जावे तो इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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