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________________ आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय) (२३ स्पष्ट और निःशंक होना चाहिए कि वह मिश्रित अर्थात् विकारी आत्मा में भी आत्मस्वरूप को अपने दृष्टि एवं ज्ञान में स्पष्ट पहिचान सके । अरहंत की आत्मा शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध है जिसप्रकार स्वर्ण का ज्ञान, शुद्ध स्वर्ण के ज्ञान-श्रद्धान से ही होता है, उसीप्रकार आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ प्राणी को भी शुद्ध आत्मा के स्वरूप के ज्ञान द्वारा ही अपने आत्मस्वरूप की पहिचान होना संभव है। अन्यथा उसके ज्ञान में, स्वरूप के प्रति नि:शंकता, दृढ़ता, पक्का विश्वास जाग्रत नहीं हो सकेगा तथा दृष्टि भी आत्मा को पकड़ने योग्य सक्षम नहीं हो सकेगी। आचार्य श्री ने शुद्ध स्वर्ण के स्थान पर भगवान अरहंत की आत्मा को इसी दृष्टि से हमारे सामने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। शुद्ध स्वर्ण का द्रव्य तो हमेशा शुद्ध ही रहता है। सोने की अवस्था (पर्याय) कितनी भी अशुद्ध हो जावे फिर भी स्वर्ण तो निरन्तर शुद्ध ही प्रकाशित रहता है। स्वर्ण के गुण, पीलापना, चिकनापन, भारीपन, मुलायमपन आदि-आदि भी हर स्थिति में पूर्ण शुद्ध बने रहते हैं और वे प्रकाशित रहते हैं। इसी से मिश्रित दशा में भी शुद्ध स्वर्ण पहिचान लिया जाता है। दृष्टान्त में ऐसे स्वर्ण को लिया है, जो पर्याय में भी शुद्ध है। ___ उपर्युक्त दृष्टान्त तो मूर्तिक पदार्थ का है । उसके माध्यम से हमको भगवान् अरहंत की अमूर्तिक आमा को समझना है। अत: अपने ज्ञान को भी सूक्ष्म बनाकर एकाग्रता के साथ समझना पड़ेगा । जगत की जितनी भी आत्माएं हैं उनमें से शुद्धात्मा तो एकमात्र अरहंत एवं सिद्ध भगवान की आत्माएं ही ऐसी हैं, जो द्रव्य से भी शुद्ध, गुणों से भी शुद्ध एवं वर्तमान पर्याय से भी शुद्ध हैं। अत: आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ प्राणी को, अपनी आत्मा पहिचानने के लिए शुद्ध स्वर्ण के स्थान पर, एकमात्र अरिहंत की आत्मा की पहिचान ही, माध्यम हो सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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