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निश्चयनय एवं व्यवहारनय )
(१०९ व्यवहारनय और उसका विषय छोड़ने (उपेक्षा करने) योग्य है। इस अपेक्षा व्यवहारनय को हेय कहा है और इस ही आशय से निश्चय को व्यवहार का निषेधक एवं व्यवहार को निषेध्य कहा है। आत्मानुभव के काल में मात्र निश्चय का ही अनुभव है, व्यवहार का तो अभाव ही वर्तता है। अत: व्यवहार तो हेय ही है।
प्रश्न - अगर व्यवहारनय हेय ही है तो जिनवाणी में निश्चय मोक्षमार्ग एवं व्यवहार मोक्षमार्ग इसप्रकार दोनों को मोक्षमार्ग कैसे कहा
उत्तर - इस संबंध में पण्डित टोडरमल जी साहब ने पृ. २४९ में महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण दिया है- “ सो मोक्षमार्ग दो नहीं है, मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार है । जहाँ सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग निरूपित किया जावे सो “निश्चय मोक्षमार्ग” है और जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परन्तु मोक्षमार्ग का निमित्त है, व सहचारी है, उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा जाय सो “व्यवहार मोक्षमार्ग” है। क्योंकि निश्चय व्यवहार का सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है।” इसलिये निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना किन्तु एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, इस प्रकार दो मोक्षमार्ग जानना मिथ्या है।" . “व्रत, तप आदि मोक्षमार्ग हैं नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार से इनको मोक्षमार्ग कहते हैं। इसलिये इन्हें व्यवहार कहा है । सो ऐसे ही मानना, परन्तु यह दोनों ही सच्चे मोक्षमार्ग हैं, इन दोनों को उपादेय मानना वह तो मिथ्याबुद्धि ही है।" ।
इसप्रकार भगवान् अरहंत के जैसा मेरा आत्मस्वरूप है वह ही निश्चय है, निश्चयनय का विषय है। व्यवहारनय के द्वारा उसके स्वरूप को समझकर, व्यवहार को हेय मान उसका आश्रय छोड़ना और अरहंत जैसे अपने आत्मस्वरूप को सत्यार्थ मानकर, उसी में अहंपना स्थापन कर, एकत्व कर आत्मानुभव प्राप्त कर लेना, यही इस कथन का तात्पर्य है।
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