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इन दोनों नयों के विषय तो द्रव्य और द्रव्य का परिणमन है वे ज्ञानपर्याय से भिन्न होने नय नहीं है । यथार्थतः तो ज्ञानी जीव को निश्चय एवं व्यवहार नय तथा उसके विषय निश्चय एवं व्यवहार मोक्षमार्ग दोनों साथ- साथ ही होते है व रहते हैं, आगे-पीछे नहीं। इसीकारण भ्रम से अज्ञानी दोनों को एक ही मान लेता है। लेकिन ज्ञानी दोनों में निश्चय को उपादेय, व्यवहार को हेय मानता हुआ प्रवर्तता रहता है । आ. ब्रह्मदेव सूरि ने बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ४७ की टीका में लिखा है
( सुखी होने का उपाय भाग
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दुविहंपि मोक्खहेउ । झाणे पाउणदि मुणि णियमा
" मुनि नियम से ध्यान द्वारा दोनों प्रकार के मोक्ष के कारणों को प्राप्त करता है"
द्रव्य के स्वरूप का आश्रय लेने से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह निश्चय है और पर्याय का जो परिणमन, प्रयोजन सिद्धि में बाधक नहीं हो तथा सहचारी हो उस परिणति को व्यवहार कहा जाता है । इस प्रकार व्रत, शील, संयमादि के भाव स्वयं मोक्षमार्ग तो हैं नहीं लेकिन मोक्षमार्गी जीव को यथायोग्य निश्चित रूप से होते ही हैं, इस कारण सहचारी देखकर उनको उपचार से मोक्षमार्ग कह दिया जाता है। लेकिन व्यवहार मोक्षमार्ग को ही सच्चा मोक्षमार्ग मान लेगा तो संसार परिभ्रमण ही बना रहेगा ।
निश्चयनय व्यवहारनय का निषेधक कैसे है ?
पंचाध्यायी अध्याय -१ के श्लोक ५९८ में तो, निश्चय को व्यवहार का निषेधक एवं व्यवहार निश्चय के द्वारा निषेध्य कहा गया है । तात्पर्य यह है कि निश्चय के आश्रय करने वाले को व्यवहार सहज ही निषेध्य हो जाता है । कारण जैसे-जैसे निश्चय में आरूढ़ता बढ़ती जाती है पर्याय की अशुद्धता जिसको व्यवहार से मोक्षमार्ग कहा था, उसका क्रमश: नाश होता जाता है । इस प्रकार निश्चय तो व्यवहार का निषेधक ही है, व्यवहार निषेध्य है ।
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