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सुखी होने का उपाय)
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तथा स्वज्ञेय भी है। परज्ञेय मेरे से भिन्न होने से उनमें आत्मा कुछ भी नहीं कर सकता, अतः वे अत्यन्त उपेक्षणीय है, उनकी चिन्ता में मेरे जीवन का एक क्षण भी क्यों बर्बाद किया जावे ? मेरे अनुसंधान करने योग्य तो मेरे लिए मात्र मेरा एक स्व- आत्मा ही रह जाता है।
इसप्रकार के निर्णयों से यह आत्मा एकमात्र अपनी आत्मा के अतिरिक्त समस्त द्रव्यों के कर्तृत्व आदि के भारी बोझ से निर्भर होकर जगत् के सभी द्रव्यों में बिखरे हुए अपने पुरुषार्थ को सब ओर से समेट कर एकमात्र अपने
स्व- आत्मद्रव्य की खोज द्वारा अपनी आत्मा में शांति प्राप्त करने का प्रयास करता है।
ऐसा आत्मार्थी जीव, सब तरफ से अपनी बुद्धि को समेट कर, श्रद्धा में सबसे संबंध तोड़कर, एकमात्र अपने आत्मा के अनुसंधान में ही अपनी बुद्धि को लगाता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा भी है किआत्मार्थनो, बीजो नहिं मन रोग। "
"काम एक
ऐसे आत्मार्थी के अभिप्राय में एकमात्र स्व- आत्मा ही मुख्य हो जाता है, और जगत के सभी कार्य गौण हो जाते हैं। धन-सम्पदा - वैभव आदि के बढ़ने से होनेवाला हर्ष एवं घट जाने से होनेवाला खेद, परद्रव्यों के कार्य मानने से, वे स्वतः ही गौण हो जाने के कारण आत्मार्थी अपने ध्येय से विचलित नहीं होता। इसीप्रकार शरीर की स्वस्थता होने
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