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________________ 57) (सुखी होने का उपाय । मान्यता रहित मात्र अकेला जानना कभी हो सकता ही नहीं है, क्योंकि श्रद्धागुण परिणमन करे बिना किसी समय भी रह सकता ही नहीं है। यही करण है कि आनादिकाल से यह आत्मा परज्ञेयों में आत्मबुद्धि होने से परज्ञेयों को स्व के रूप में ही जानता एवं मानता चला आ रहा है, यह मान्यता प्रत्यक्ष विपरीत होने से, ऐसी मान्यता अर्थात् श्रद्धा को, विपरीत श्रद्धा, मिथ्यामान्यता, मिथ्यादर्शन, मिथ्यात्व, अज्ञान आदि अनेक नामों से जिनवाणी में कहा गया है। स्वसन्मुखता प्रगट करने का उपाय इस आत्मा की कोई प्रकार की अपेक्षा रखे बिना परद्रव्य स्वतंत्रता से अपने-अपने गुण पर्यायों में परिणमन करते हैं, लेकिन यह अज्ञानी उन सबका अपने को स्वामी मानकर अपने अनुकूल परिणमाना चाहता है, लेकिन वे तो अपने परिणमन से परिणमते हैं, इसके अनुकूल ही कैसे परिणमन कर सकते हैं, फलतः यह निरन्तर आकुलित-व्याकुलित रहते हुये उनको अपना बनाने का प्रयास करता-करता ही अपना जीवन समाप्त कर देता है। इसके विपरीत ज्ञानी आत्मा, अपने स्वआत्मद्रव्य में ही स्वपना मानते व जानते हुए परिणमता है, और स्व तो त्रिकाल एकरूप अपरिवर्तनीय है, अतः पर्याय अपने ही स्वद्रव्य से एकमेक होकर परिणमती है और परमशांति का अनुभव करती है, यथार्थ श्रद्धा (मान्यता) प्रगट होने की सबसे मुख्य पहिचान भी यही है कि ऐसी परम शांति का अनुभव हो, ऐसी दशा प्रगट होनेवाले को ही सम्यग्दृष्टि आदि अनेक नामों से जिनवाणी में कहा गया है। इस विषय की विस्तारपूर्वक चर्चा भाग-३ में की जावेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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