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________________ 33) (सुखी होने का उपाय सके, उनकी परीक्षा करना, न हो सके उनकी आज्ञानुसार जानकारी करना।" उपर्युक्त कथन पर गंभीरता से विचार किया जावे तो टोडरमल जी साहब ने गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि करणानुयोग को, एवं पुराणदिक प्रथमानुयोग को तथा व्रतादिक-क्रियादिक चरणानुयोग को अर्थात् उपर्युक्त तीनों अनुयोगों के संबंध में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पूर्व निर्णय करने के लिये "भी' शब्द का प्रयोग किया है। जिसका तात्पर्य निकलता है कि ये तीनों अनुयोगों के कथन सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में मुख्य सहायक नहीं होंगे, मुख्य उपयोगी तो इन तीनों अनुयोगों के अतिरिक्त बचा हुआ स्व के अस्तित्त्व के साथ साथ हेय- उपादेय का ज्ञान करानेवाला एक द्रव्यानुयोग ही मुख्य उपयोगी रहता है। सारांश तीनों अनुयोग गौण रूप से सहयोगी बताये गये हैं। द्रव्यानुयोग में भी मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५८ पर ऊपर बताये गये सारभूत विषय तो मात्र वही हैं। अतः आत्मार्थी जीव को आगम के अध्ययन अर्थात् तत्त्वनिर्णय के लिए भी चारों अनुयोगों में अपनी भटकती हुई बुद्धि को भी सर्वप्रथम सब ओर से समेट कर द्रव्यानुयोग में भी मात्र उपयुक्त प्रयोजनभूत विषयों के निर्णय पर ही एकाग्र होकर लगा देनी चाहिए। मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २३५ पर तो और भी विशेष जोर देकर टोडरमलजी साहब ने कहा है कि : यदि बुद्धि थोड़ी हो तो आत्महित के साधक सुगम शास्त्रों का ही अभ्यास करें, ऐसा नहीं करना कि व्याकरण आदि का अभ्यास करते करते आयु पूर्ण हो जावे और तत्त्वज्ञान (प्रयोजनभूत तत्त्व) की प्राप्ति न बने। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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