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________________ सार-संक्षेप) X तत्स्वरूप के साथ ही होता है और निमित्त-नैमित्तिक संबंध एक द्रव्य का, दूसरे के साथ अर्थात् अतत्स्वरूप के साथ होता है अतः दोनों में बड़ा अंतर है। यहाँ प्रश्न खड़ा है कि हर एक कार्य तो निमित्त के अनुसार ही हो रहा है ऐसा दिखता है? उसका उत्तर दिया गया है कि जिससमय कार्य हुआ उससमय उपादानरूप द्रव्य ने अपनी पूर्व अवस्था व्यय करके उससमय की उस कार्यरूप पर्याय का उत्पादन किया और उसी समय अनंत द्रव्यों में से कोई एक द्रव्य जो उस कार्य के अनुकूल हुआ उसको उसीसमय निमित्त-संज्ञा प्राप्त हुई। दोनों ही एक ही काल में उपस्थित तो रहते ही हैं। वहाँ देखनेवाला अगर संयोग (निमित्त) को मुख्य करके संयोगीदृष्टि से उस कार्य को देखेगा तो वह कार्य निमित्त जैसा होने के कारण निमित्त ने पैदा किया ऐसा दिखने लगता है और उसीसमय उसी कार्य को स्वभाव की दृष्टि अर्थात् उपादान की दृष्टि से देखा जावे तो, वह कार्य उपादानरूप द्रव्य का ही उत्पादन है, उस ही की पर्याय है। अतः निःसंदेह उस कार्य का उत्पादक उपादान ही है, निमित्त नहीं, ऐसा विश्वास में आता है। लेकिन संयोगी दृष्टि पराधीनश्रद्धा की उत्पादक, पुरुषार्थ का घात करनेवाली होने से उपादेय नहीं हो सकती। स्वभावदृष्टि की श्रद्धा स्वाधीनता की उत्पादक है, आत्मा को अपनी पर्याय में होनेवाले विकार को अभाव करने का उग्र पुरुषार्थ जाग्रत करती है, अतः हमारे प्रयोजन सिद्ध करनेवाली होने से स्वभावदृष्टि ही सर्वथा उपादेय है। इसप्रकार हर एक द्रव्य के परिणमन की स्वतंत्रता की श्रद्धा जाग्रत होने से हमारी आत्मा में अनंत निर्भयता एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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