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सुखी होने का उपाय)
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त्रिकाली भाव को जानता है, तब पर्यायों का अस्तित्त्व रहते हुए भी वे ज्ञान में नहीं आ पातीं। अतः हमारे ज्ञान को अनिवार्य हो जाता है कि वह किसी भी एक को मुख्य बनावे, उसी समय अन्य विषय गौण हो ही जाते हैं। इस ही प्रक्रिया का नाम नय है और यह अनिवार्य स्थिति है। इसी स्थिति को समझने का नाम नयज्ञान है। इसको समझे बिना स्व-पर का विभागीकरण संभव ही नहीं है। स्व-पर के विभागीकरणरूप भेदज्ञान के बिना मोक्षमार्ग ही संभव ही नहीं है। इन्हीं कारणों से नयज्ञान अत्यन्त उपयोगी है। आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश भेदज्ञान की निम्न शब्दों में महत्ता बताई है:
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ १३१ ॥
श्लोकार्थ- जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं, और जो कोई बंधे हैं, वे उसी के अभाव से बंधे हैं।
ऐसे भेदज्ञान को कबतक भाना चाहिए, यह भी कलश १३० में कहा है
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भावयेद्भेदविज्ञान मिदमच्छिन्नधारया ।
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते ॥ १३० ॥ श्लोकार्थ - यह भेदविज्ञान अच्छिन्न-धारा से (जिसमें विच्छेद न पड़े, ऐसे अखण्ड प्रवाह रूप से) तब तक भाना चाहिये जबतक (ज्ञान) परभावों से छूटकर ज्ञान ज्ञान में ही (अपने स्वरूप में ही) स्थिर हो जाये। अतः नयज्ञान के द्वारा स्व को मुख्य रखकर उपादेयरूप से एवं पर को गौण करके हेय के रूप में समझना ही नय का परम उपकार है। इस ही कारण नयचक में स्व
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