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(सुखी होने का उपाय
समय भी, पर में एकमेक नहीं होता और अलग-अलग सा रहता हुआ कार्यशील रहता है। इसीकारण ज्ञानी का प्रयास रहता है कि परलक्षी ज्ञान भी ऐसे ज्ञेयों में नहीं फंसा रहे, जिससे स्वलक्ष्य दूर हो जावे, अतः वह प्रयास पूर्वक भी अपने परलक्षी ज्ञान को भी अपने स्वलक्ष्य के नजदीक रखने के लिये प्रयत्नशील रहता है । पुनः पुनः आत्मानंद का स्वाद लेने की उत्कंठावाला रहता है। सर्वज्ञता एवं वीतरागता प्राप्त करने को उत्सुक वर्तता है। सर्वज्ञ वीतराग दशा को प्राप्त - अरहंत, सिद्ध देवों को तथा उसी मार्ग पर चलने का मार्ग बतानेवाली जिनवाणी को एवं उस ही मार्ग में प्रवर्तते हुए आचार्य, उपाध्याय एवं मुनिराजों के प्रति अत्यन्त विनयवान् होकर सहज रूप से स्वयं वर्तता ही रहता है। साथ ही अपनी भावना के पोषण के लिये, अपने परलक्षी उपयोग को सीमित रखने का निरंतर प्रयासरत वर्तता रहता है। इन्ही कारणों से देव- शास्त्र - गुरु की श्रद्धा, विनय, भक्ति आदि एवं सात तत्त्वों की श्रद्धा एवं अध्ययन आदि को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा गया है। अगर यह श्रद्धा वीतरागता का पोषण नहीं करती हो, तो यथार्थ में वह व्यवहार कहलाने योग्य भी नहीं होती।
निश्चय - व्यवहार का स्वरूप
इस पर प्रश्न होता है कि निश्चय - व्यवहार में अंतर क्या है ?
उत्तरः- निश्चयनय, व्यवहारनय की विस्तृत चर्चा तो आगे नय के प्रकरण में करेंगे । यहाँ तो मात्र इतना समझ लेना है कि निश्चयनय एवं व्यवहारनय का स्वरूप क्या है ? मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रथ के पृष्ठ में निश्चय - व्यवहार की परिभाषा दी है
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