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________________ ९४] [ सुखी होने का उपाय स्वभाव से द्रव्य की स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। काल से स्वकाल और परकाल का ग्रहण किया है। पुरुषार्थ से जीव का बल-वीर्य लिया गया, नियति से समर्थ उपादान या निश्चय की मुख्यता दिखलाई गई है। इनहीं पाँच कारणों को सूचित करते हुए पंडितप्रवर बनारसीदास जी नाटक समयसार के सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में कहते हैं - . “पद सुभाव पूरवउर्द निहचै उद्यम काल। पच्छपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल ॥ ४२ ॥ गोम्मटसार कर्म काण्ड गाथा ८७९ से ८८३ तक में पाँच प्रकार के एकान्तवादियों का कथन आता है । उसका आशय इतना ही है कि जो इनमें से किसी एक से कार्य की उत्पत्ति मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है और जो कार्य की उत्पत्ति में इन पाँचों समवायों को स्वीकार करता है, वह सम्यग्दृष्टि है । अष्टसहस्त्री पृष्ठ २५७ में भट्टाकलंकदेव ने एक श्लोक दिया है उसका भी यही आशय है। श्लोक इस प्रकार है तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवयायश्च तादृषः । सहयातस्तादृषाः सन्ति यादृषी भवितव्यता ।। अर्थ :- जिस जीव की जैसी भवितव्यता होनहार होती है, उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसीप्रकार करने लगता है, और उसे सहायक भी उसी के अनुसार मिल जाते हैं। अष्टसहस्त्री का उपरोक्त कथन भवितव्यता की मुख्यता से किया गया है, लेकिन साथ ही उसमें बाकी सभी समवायों का तत्समय होना भी स्वीकार किया गया है । इसप्रकार किसी भी एक समवाय की मुख्यता पूर्वक कथन अन्य समवायों को गौणपने रखते हुए किया जाता है वह सम्यक् है, इसके विपरीत अन्य समवायों के बिना मात्र एक ही समवाय से कार्य की उत्पत्ति माने वह मिथ्या है। ऐसी मान्यता वाले को गोम्मटसार कर्मकाण्ड में एकान्ती मिथ्यादृष्टि कहा है। ता " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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