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[सुखी होने का उपाय टीका :- “जीव परिणाम को निमित्त करके पुद्गल कर्म रूप परिणमित होते हैं और पुद्गल कर्म को निमित्त करके जीव भी परिणमित होते हैं । इसप्रकार जीव के परिणाम के और पुद्गल के परिणाम के परस्पर हेतुत्व का उल्लेख होने पर भी जीव और पुद्गल के परिणाम के परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव का अभाव होने से जीव का पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गल कर्म को जीव परिणामों के साथ कर्ता-कर्मपने की असिद्धि होने से मात्र निमित्त-नैमित्तिक भाव का निषेध न होने से, परस्पर निमित्त मात्र होने से ही दोनों के परिणाम होता है। इसलिए जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है अर्थात् जैसे मिट्टी ही घड़ा बनाती है उसीप्रकार अपने भाव से अपना भाव किया जाता है। इसलिए जीव अपने भाव का कर्ता कदाचित् होता है, परन्तु जैसे मिट्टी से कपड़ा नहीं किया जा सकता उसी प्रकार अपने भाव से परभाव का किया जाना अशक्य है। इसलिए जीव पुद्गल भावों का कर्ता तो कदापि नहीं हो सकता यह निश्चय है।” ॥ ८०-८२ ॥ ___“व्याप्य-व्यापकता तत्स्वरूप में ही होती है, अतत्स्वरूप में नहीं ही होती, और व्याप्य-व्यापकभाव के संभव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति कैसी ? अर्थात् कर्ताकर्म की स्थिति नहीं ही होती।” ॥ ४९ ॥
“जो परिणमित होता है सो कती है, परिणमित होने वाले का जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणमित है सो क्रिया है, ये तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं।” ॥५१॥
उपरोक्त आगम वाक्यों से कर्ता-कर्म संबंध एवं निमित्त-नैमित्तिक संबंध की व्याख्या, लक्षण एवं स्वरूप स्पष्ट हो जाते हैं।
निमित्त-नैमित्तिक संबंध में पराधीनता का निराकरण
उपरोक्त “निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं माना जावे" तो प्रकरण के अन्तर्गत जो उदाहरण दिये गये हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि निमित्त के अनुसार ही कार्य होता है। जैसे गाली देने का भाव हुआ तो गाली के
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