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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, पररूप परिणमन न करने से अपनी अनन्त व्यक्तिता प्रगटता नष्ट नहीं होती, इसलिये जो टंकोत्कीर्ण की भाँति शाश्वत स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनों ही हेतुता से निमित्त भाव से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं-टिकाये रखते हैं ।”
उपरोक्त आगम प्रमाण से हर एक द्रव्य का आपस में क्या संबंध है, इस बात को बहुत दृढ़तापूर्वक स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है। अर्थात् हर एक द्रव्य अपनी स्वतंत्र वस्तुव्यवस्था को अपने-आप में बनाये रखते हुए भी अन्य द्रव्य के साथ मात्र निमित्त - नैमित्तिक संबंध रखता ही है । ऐसी ही विश्व की व्यवस्था है ।
निमित्त - नैमित्तिक संबंध माना ही न जावे तो ?
विश्व की जैसी व्यवस्था है उसको वैसा ही स्वीकार नहीं करे तो उसका ज्ञान ही सच्चा नहीं रहेगा। उसके स्वीकार नहीं करने से विश्व व्यवस्था तो नहीं बदल जावेगी, उसका ज्ञान ही झूठा होगा ।
जो स्थिति आगम सम्मत है उसको स्वीकार नहीं करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । आगम से सिद्ध है कि जब-जब जीव पुद्गल गति परिणति को प्राप्त होते हैं तो धर्मद्रव्य निमित्त कहलाता है । इसीप्रकार जब-जब जीव एवं पुद्गल, गतिपूर्वक स्थिरता को प्राप्त होते हैं तब अधर्मद्रव्य निमित्त कहा जाता है तथा सभी द्रव्यों को अवकाश देने में निमित्त आकाश द्रव्य है, उसीप्रकार कालद्रव्य भी परिणमन में सभी द्रव्यों के निमित्त हैं तथा आत्मा को स्वलक्ष्य के अभाव में मात्र परलक्षी ज्ञान होने पर, पुद्गल एवं उसके स्कंध कर्म नोकर्म आदि क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति में निमित्त कहे जाते हैं । इसीप्रकार अजीव द्रव्य भी एक प्रदेशी परमाणु से पलटकर स्कंधरूप होता है तथा स्कंध से परमाणुरूप होता है उसमें जीवद्रव्य निमित्त कहा जाता है। ऐसी ही सारे विश्व की आगम
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