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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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उपरोक्त प्रकार से आचार्य महाराज ने विश्व की व्यवस्था के स्वरुप को स्पष्ट किया है। उक्त आधार से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि इस विश्व की हर एक वस्तु यानी द्रव्य, हर समय स्वतंत्रतया अपने-अपने गुणों में परिणमन करते ही रहते हैं-पर के गुणपर्यायों में परिणमन करना अशक्य होने से कोई द्रव्य पर में कुछ करता ही नहीं है।
सभी द्रव्य जो संख्या में अनंतानंत हैं-जैसे जीवद्रव्य अनंत, पुद्गल अनंतानंत, धर्म, अधर्म, आकाश एक-एक असंख्यात कालाणु, सभी में से हर एक द्रव्य हर समय अपनी-अपनी पर्यायों में परिणमन करता ही रहता है वह दूसरे द्रव्य के कैसे परिणमन हो रहे हैं इसकी अपेक्षा भी नहीं करता। लेकिन सभी के परिणमन एक साथ होने से, उनके परिणमन, किसी अन्य द्रव्य के कोई परिणमन, बिना किसी प्रयास के दूसरे द्रव्य के परिणमन के अनुकूल दिखने लगता है, जबकि उसी द्रव्य का वह परिणमन किसी को प्रतिकूल दिखने लगता है, जबकि उस अनुकूल-प्रतिकूल दिखने वाले परिणमन को पता भी नहीं है कि मेरा परिणमन किसी को अनुकूल लग रहा है अथवा प्रतिकूल लग रहा है । इसप्रकार समस्त द्रव्यों के परिणमन अर्थात् पर्यायें किसी के लिए अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता उत्पन्न किए बिना ही अपने-अपने क्रमानुसार अनादि-अनंत काल तक निर्वाध गति से परिणमन करती ही रहती हैं। यही आगमसम्मत विश्व की व्यवस्था है।
इसके विपरीत अगर कोई भी द्रव्य के परिणमन को दूसरे द्रव्य के परिणमन के अनुकूल बनने के अथवा प्रतिकूल बनने के अधिकार को स्वीकार कर लिया जावे तो, अनंत द्रव्यों के आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाने से विश्वव्यवस्था ही नहीं रह सकेगी। अत: यह ध्रुव सत्य है कि सभी द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों को ही करते रहते हैं, किसी दूसरे द्रव्य में अथवा उसकी पर्याय में किसी भी प्रकार का, किसी भी समय, कैसा भी हस्तक्षेप कर ही नहीं सकते। यही आगम सम्मत विश्व की व्यवस्था है।
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