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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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ऐसा जीव का लक्षण उपयोग कहा है। जीव का पहिचानने के लिए जीव का असाधारण लक्षण “उपयोग" है । आगम में भी कहा है “ उपयोगोलक्षणम्” उपयोग अर्थात् चेतन का व्यापाररूप प्रवर्तन । तात्पर्य यह है कि आत्मा का ज्ञान एक ऐसा लक्षण है कि वह ज्ञान विश्व के अनन्त द्रव्यों में से मात्र एक आत्मा के अतिरिक्त किसी भी अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता। वह ज्ञान निरन्तर कार्यशील ही रहता है अर्थात् निरन्तर जानने का कार्य करता ही रहता है । कहीं भी कोई भी काल ऐसा आ ही नहीं सकता जब ज्ञान का कार्य रुक जावे, ज्ञान आत्मा का स्वभाव अर्थात् गुण है, जानना उसकी पर्याय है। कभी कोई काल ऐसा आ ही नहीं सकता कि कोई भी द्रव्य - गुण अपना उत्पाद करना रोक दें, इस ही कारण आत्मा भी अपना उत्पाद कैसे रोक सकता है । अतः आत्मा के स्वाभाविक परिणमन को ही “ उपयोगोलक्षणम्" के द्वारा आचार्य महाराज ने जीव को पहचानने का उपाय बताया है
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हमारे अनुभव में भी आता है कि आत्मा दुःख के समय दुःख को, सुख के समय सुख को, वेदना के समय वेदना को, वेदना मिट जाने पर वेदना मिट जाने को, भूख लगने पर भूख को, क्षुधा मिट जाने पर क्षुधा मिट जाने को, खट्टी को, मीठी को, चरपरी को आदि-आदि; साथ ही अपने ही अन्दर होने वाले क्रोध के समय क्रोध को, मान के समय मान को, माया के समय माया को एवं लोभ, हास्य, रति, अरति आदि-आदि; के समय-समय पर उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकार के भावों को, एवं जिस समय वे कषायें उत्पन्न हों अथवा होकर शांत हो जावें उस समय उन शांत भावों आदि अनन्त प्रकार के स्वाभाविक भावों को भी जानता ही रहता है। वर्तमान में अनेक गुणों की उत्पादरूप प्रगटता ज्ञान की पकड़ में न भी आ रही हो तो भी, ऐसे अनन्त स्वभाव, गुण, धर्म आत्मा में हैं, उनके भी अस्तित्व का ज्ञान जान लेता है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा का ज्ञानरूप रहना ही, आत्मा का धर्म है
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