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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ३५ भी सत्ता में कोई भी किसी प्रकार से बाधा नहीं पहुंचा सकता। अत: मैं भी एक जीव पदार्थ हूँ। मेरी सत्ता में भी कोई बाधा डालने वाला इस जगत में नहीं हैं तथा मुझे भी किसी भी अन्य एक पदार्थ की भी सत्ता में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है आदि-आदि। उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् यहाँ पर सहज ही प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि जब वस्तु का अस्तित्व रहना ही स्वभाव है तो वह एकरूप में ही अनादि अनन्त रहनी चाहिए थी, यह विविधपना कैसे है ? इसके समाधानस्वरूप आचार्य उमास्वामी ने दूसरा सूत्र दिया कि “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" अर्थात् सत्रूप वस्तु हमेशा एकरूप ही नहीं रहती, वरन् वह अपनी सत्ता को कायम रखते हुए भी अनेक प्रकार की नवीनता हर समय करती रहती है। ऐसा ही वस्तु का अनादि-अनन्त स्वभाव है। उदाहरणस्वरूप हम एक जीवद्रव्य के संबंध में विचार करें, इसमें हमको हर समय परिवर्तन होता हुआ ख्याल में आता है। जैसे ही कभी क्रोध भाव हुआ वह भी हर समय घटता-बढ़ता है, एक सा नहीं रह पाता और कभी क्रोध के स्थान पर मान का भाव भी आ जाता है, आदि-आदि अनेक प्रकार से परिवर्तन होता हुआ अनुभव में आता है। लेकिन वे सब परिवर्तन वाले भाव जिसमें हो रहे हैं ऐसा वह जीवद्रव्य, स्वयं ज्यों का त्यों, हर परिवर्तन के समय तथा बाद में भी एक सा बना रहता है। इसी प्रकार पुद्गल में भी देखें तो उसमें भी परिवर्तन होता हुआ हमको प्रत्यक्ष ज्ञान में आता है। रोटी आदि खाद्य पदार्थों के परमाणु, भोजन के बाद शरीर में अनेक प्रकार से परिणमन करते हुए जानने में आते हैं। जैसे उस भोजन के परमाणुओं में से कुछ हड्डीरूप, कुछ मांसरूप, कुछ मज्जारूप, कुछ खून-रक्त रूप, कुछ पेशाबरूप, कुछ मलरूप आदि अनेक-अनेक रूप से परिणमते हुए प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं, तदुपरान्त वे ही मलरूप परमाणु खाद के रूप में खेत में पहुँच जाते हैं, कालान्तर में वे ही गेहूँ रूप होकर फिर हमारे खाने योग्य बन जाते हैं, आदि-आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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