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________________ [ ३३ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] आत्मा की शांति ही हमारा मूल प्रयोजन है। साथ ही जीवद्रव्य में अशान्ति पैदा करने में पुद्गल द्रव्य का सम्बन्ध होने से पुद्गल द्रव्य की भी चर्चा करेंगे। बाकी के चार द्रव्य- धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्य भी हैं लेकिन हमारी आत्मा की अशांति में मुख्य कारण नहीं होने से उनकी चर्चा में हम नहीं उलझेंगे। लेकिन पाठकों को इतना ही मान लेना चाहिए इन चारों का भी अस्तित्व उस ही प्रकार है जिसप्रकार जीव और पुद्गल का है और जीव व पुद्गल का स्वरूप समझ लेने के बाद इनका भी स्वरूप सुगमता से समझ में आ जावेगा। इसप्रकार वर्तमान में जीव ही हमारे समझने के लिए मुख्य विषय रहा एवं गौणरूप से पुद्गल को भी समझना है। यह छह द्रव्यों के समुदायरूप लोक, अनन्ते जीवद्रव्य अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु एवं एक-एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य एवं असंख्यात कालाणुओं से भरा हुआ है अर्थात् अनन्तानंत वस्तुओं के रहने का स्थान है। इस लोक की अनन्तानंत वस्तुओं में से, मैं भी एक जीवद्रव्य हूँ, “मुझे ही मेरे लिए धर्म करना है, इसलिये मुझे मेरा ही स्वरूप समझना मुख्य है"। - इस दृष्टिकोण को मुख्य रखकर मुझे धर्म का स्वरूप समझना है। इस प्रकार “वस्तु क्या है” यह समझा। वस्तु का स्वभाव क्या है? इसका दूसरा चरण समझने के लिए सर्वप्रथम यह समझना है कि सभी वस्तुओं में स्वभाव का अर्थ क्या होता है ? स्वभाव का अर्थ अपनी-अपनी क्वालिटी या अपने-अपने गुण । जगत में जो भी वस्तुएँ हैं वे सभी अपनी-अपनी क्वालिटी, स्वभाव, गुण, विशेषता जरूर रखती हैं। इन क्वालिटियों में यानी स्वभावों में, सभी वस्तुओं में एक रूप से पाये जाने वाले स्वभावों को सामान्य गुण कहते हैं एवं जो स्वभाव अनन्त इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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