SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [१९ वर्तमान तीव्र आकुलता के समय होने वाले नये पापभावों के फलस्वरूप फिर नये पापकर्म बांधता है जो आगामी फिर तदनुकूल फल प्राप्ति होने पर भविष्य में भी दुःखी होता रहेगा। इसीप्रकार अत्यन्त आकुलतारूप दुःख का वेदन करता हुआ भ्रमण करता रहता है। इसका कारण एकमात्र इसकी उल्टी मान्यता है । यह मानता है कि मैं मेरे प्रयासों से बाहर की परिस्थितियों को बदल सकता हूँ इसलिए निरन्तर आकुलित होता रहता है 1 उपरोक्त सत्य स्थिति अर्थात् वस्तुव्यवस्था को समझें तो कम से कम अपने प्रयासों की निष्फलता के समय दीनता धारणकर तीव्र आकुलित नहीं होवें व अपने प्रयासों की सफलता के समय कर्तृत्वबुद्धि के मिथ्या अभिमान के द्वारा झूठी आकुलता से फूला-फूला नहीं फिरे अर्थात् दोनों प्रकार की आकुलताओं से बच सकता है । निष्कर्ष अतः निष्कर्ष निकलता है कि सामग्री का मिलना नहीं मिलना अपने वर्तमान प्रयासों का फल नहीं है, वरन् पूर्व उपार्जित पुण्य अथवा पापकर्म हैं, उसके अनुसार ही सामग्री प्राप्त होती है । उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि इच्छायें ही दुःख अर्थात् आकुलताओं की जननी हैं। जिसके आकुलता है वही दुःखी है और जिसके किंचित भी आकुलता नहीं है वही पूर्ण सुखी है अर्थात् भगवान है । अत: अगर हमको भगवान बनना है तो इच्छाओं का अभाव करना होगा और जिस मार्ग से इच्छाएँ उत्पन्न ही न हों, उस मार्ग को अपनाना होगा इसी का नाम मोक्षमार्ग है, वही धर्म है, वीतरागी पंथ है, वही जिनशासन है । आचार्य समंतभद्र ने कहा भी है कि : " देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुखतः सत्वान् यः धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy