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बालावबोधरूपगूर्जरभाषामय -धूर्ताख्यानकथा वली कंडरीक कहिवा लागो जे– 'ढिंक पंखिणी एवडी मोटी ते कहिं सांभली छइ, जेहना पेट मांहिं ए अजगरादिक सर्व मायां ?' | तेवारि एलापाढइ कहिउं जे- 'स्युं बांधव ! तइं द्रौपदीनइ स्वयंवरा मंडपइ, धनुष मांहिं, पर्वत सर्प अग्नि माया ते वात नथी सांभली । द्रुपद राजाइं उदघोषणा करावी जे माहरु देवताधिष्ठित धनुष चढावी राधावेध करइ ते राजा द्रोपदीनें परणे । ते सांभलि तिहां अनेक बलवंत राजा आवीआ । धनुष आरोपतां पड्या । लोकिं उपहस्या । तिवारि जेतले महामानी । शिशुपाल धनुष चढाविवा उठिओ, तेतले धनुष उपरि कृष्णे मेरु पर्वत, गरुड, हल, मूसल, सर्प, शंख, गदा, चक्र नांखियां । तोहे बलिष्टपणाथी आरोपवा लागो । तिवारि वली चंद्र, सूर्य, अग्नि, समुद्र, पर्वत, पृथ्वी नांखियां । तोहे धनुष आरोपतां अद्धांगुल प्रमाण असंधित रहिउं । तेवारि कृष्णइ पगइ ठेलिउ शिशुपाल, धनुष साथि भूमि पड्यो । पछै ते धनुष्य अर्जुनइ लीधुं । तेहनो महाभार पृथ्वीइ सहिवायो नहीं, ते माटि भीमनइ हाथिं भार मूकी, धनुष चढावी, कर्णइ ।। आप्यो बांण लेई, राधावेध करी द्रोपदी अर्जुनई परणी । जो ते धनुष एहवं मोटुं जे मांहिं ते पर्वतादिक माया, तो ते ढिंक पंखिणी मोटी किम न होइ, जेहने उदरि अजगिरादिक माया । ५ । [२,५१-६१] ___ तथा रामायणि कहिउँ छै- सीतानें हरंता जुद्ध करवा जटायु पंखी आव्यो, ते रावणई चंद्रहास खगई पांख छेदी भूमि पाड्यो । तेवारि सीताई ते जटायु पंखीनइ कहिउं- 'माहरा सीलनै महिमाइ, 15 रामचंद्रना दूतना दर्शनथी ताहरी पांखड' फिरी' आवस्यै' । पछइ केतलाइ कालिं, रामचंद्रनी आज्ञाइ सीतानी शुद्धि करवा पृथ्वीई फिरतो हनुमंत तिहां आव्यो । 'आ कोईक मोटो पर्वत दीसै छै, ए उपरि चढी सकल पृथ्वीमंडल जोउं' – इम चीतवी हनुमंत जटायुध पासि गयो । तेवारि जटायुई पुछिउं–'तुं कोण किहांथी आव्यो ?'। हनुमंतें कहिउं-'रामचंद्रनो दूत छु। सीतानो समाचार लेवा जाउं छु । तिवारि जटायुइं कहिउ जे-'सीतान लंका नगरीइ रावण लेई गयो, तुं फोगट वनइ भमइ छै । । ए समाचार ऊतावलो जईनै रामचंद्रनें कहि । मुझने पणि रावणई सीता माटि जुद्ध करतां वि पांख छेदीनै भूमि मूक्यौ' । ते सांभलि हनुमंतइ कहिउं जे-'तई रावण साथिइ युद्ध कयु अनै अम्हनें सीतानो समाचार कह्यो तेथी तुझने पणि भलुं थाउ' - इम हनुमंतनुं बचन सांभल्युं, तेथी जटायुनइ पांख आवि, तेणें उडिनै गगनमार्गे थई स्वर्गि गयउ । जो जटायु पंखी पर्वत सरिषो हतो, तो ढिंक पंखिणी मोटी किम न होइ । ६ । [२,६२-७४ ]
॥ एलाषाढेनोक्तं कंडरीकं प्रति प्रत्युत्तरकथानकषटकमिदम् ॥
॥ इति धूर्ताख्याने द्वितीयमाख्यानं समाप्तम् ॥२॥
इम एलाषाढेइ उत्तर दीधइ हूँतै कंडरीक कहिवा लागो जे-'एलाषाढ, तई जे अनुभव्युं, पीळ, सांभल्युं ते कहि' । तेवारिं एलाषाढ बोल्यो-“हुँ यौवन समयै धनलोभै धातुवादादिक व्यसना जग भन्यो । इहां विल छइ, आ ते पर्वत जिहां धातु होई, ए मूल, ए मंत्र, इम धननी भासाइ मम . एक आगम पांम्यो जे पूर्वदिशि योजन सहस्रिं एक पर्वत छै । तिहां सहस्रवेधी रस है। वह 1P पाखो। 2 P फरी।
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