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________________ श्वसुर के लोगों से उसको मिली हो (१५) । अकाल के समय अथवा धार्मिक श्रावश्यकताओं के अतिरिक्त और समय पर उसके स्त्री-धन को कोई अर्थात् पति भी नहीं ले सकता (१६) । धार्मिक कार्यों में दिनचर्या की पूजा इत्यादि सम्मिलित नहीं हैं । उससे केवल उस आवश्यकता का अर्थ है जो जाति वा धर्म पर आई हुई आपत्ति के टालने के निमित्त हो । पत्नी का स्त्री-धन पति उस समय भी ले सकता है जब वह कारागार में हो ( १७ ) । परन्तु वह स्त्री-धन को उसी दशा में ले सकता है जब उसके पास कोई और सम्पत्ति न हो (१८) । तो भी यदि पति स्त्री-धन को लेने पर बाध्य हो जावे और उसको वापिस न दे सके तो वह उसे पुनः देने के लिए बाध्य नहीं है (१) । स्त्री को अपने स्त्री-धन के व्यय करने का अपने जीवन में पूर्ण अधिकार है ( २० ) । वह उसको अपने भाई-भतीजों को भी दे सकती है (२१) । ऐसा दान साक्षी द्वारा होना चाहिए (२१) । परन्तु यह नियम आवश्यकीय नहीं है । यदि इस विषय पर कोई झगड़ा उठे तो उसका निर्णय पंचायत या न्यायालय द्वारा होगा (२२) । स्त्री के मरण पश्चात् उसका स्त्री-धन उसके निकट सम्बन्धियों अर्थात पुत्री, दोहिता और दोहित्रियों के अभाव में उसके पुत्र को ( १२ ) श्र० ८१ । ( १६ ) भद ० ( १७ ) अह० १४५ । (१८) 99 १४५ । ( १ ) वर्ध० ४६; श्रह ० १४५ | ( २० ) इन्दू ० ४६-५१ । 39 २१ ) ४६-५० । ( २२ ) ५०-५१ । "" Jain Education International १०; वर्ध० ४५-४६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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