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है। अनुमानतः रचयिता के विचार में केवल यह विषय था कि वैश्य पिता के एक वैश्य वर्ण और दूसरी शूद्र वर्ण की ऐसी दो स्त्रियाँ हों और दत्तक लेने के पश्चात् उस पिता के पुत्र उत्पन्न हो जाय तो यदि यह पुत्र वैश्य स्त्री से उत्पन्न हुआ है तो दत्तक पुत्र को सम्पत्ति का चतुर्थ भाग दिया जायगा और शेष औरस पुत्र लेगा, परन्तु यदि पुत्र शूद्रा स्त्रो से उत्पन्न हुआ है तो वह दत्तक पुत्र को अनधिकारी नहीं कर सकेगा केवल गुज़ारा पावेगा जो उसे जैनला के अनुसार प्रत्येक दशा में मिलता।
पगड़ी बाँधने के योग्य औरस पुत्र ही होता है ( ५२ ) । परन्तु यदि औरस पुत्र के उत्पन्न होने से प्रथम ही दत्तक पुत्र के पगड़ी बाँध दी गई है तो औरस पुत्र के पगड़ी नहीं बंधेगी, किन्तु दोनों समान भाग के अधिकारी होंगे ( ५२ )।
औरस तथा दत्तक दोनों ही प्रकार के पुत्र यदि माता की आज्ञा के पालन में तत्पर, विनीत एवं अन्य प्रकार गुणवान हों और विद्योपार्जन में संलग्न रहें तो भी वे साधारण कुल-व्यवहार के अति. रिक्त कोई विशेष कार्य माता की इच्छा तथा सम्मति के बिना नहीं कर सकते ( ५३)। यह नियम पुत्र की नाबालगी के सन्बन्ध में लागू हं ता मालूम पड़ता है अथवा उस सम्पत्ति से लागू है जो माता को दाय भाग में मिली है जिसके प्रबन्ध करने में पुत्र स्वतन्त्र नहीं है । अन्य अवस्थाओं में यह नियम परामर्श तुल्य ही है (५४)।
(५२ ) भद्र० ६३-१४; वध ०५-६; अह • ६७-६८ । (५३) वध १८-१६; अहं० ८३-८४ । (५४) अह १०४।
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