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________________ बात को ढूँढ़ निकाला ( देखा शोर्ट स्टडीज़ इन दी साइन्स प्रोफ कम्पेरेटिव रेलीजन ) * जैन मत और हिन्दू मत के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में तीन बातें संभव हो सकती हैं अर्थात् ( १ ) जैन मत हिन्दू मत का बच्चा है । ( २ ) हिन्दू मत जैन मत का बच्चा है । ( ३ ) दोनों तत्कालीन भिन्न धर्म हैं जो साथ साथ चलते रहे हैं जिनमें से कोई भी दूसरे से नहीं निकला है। इनमें से ( १ ) केवल कल्पना है और उसके अनुमोदन में कोई आन्तरिक या बाह्य साक्षी नहीं है । ( २ ) आन्तरिक साक्षी पर निर्धारित और इस बात पर स्थिर है कि वेदों का वास्तविक भाव अलङ्कारयुक्त है । और ( ३ ) वह प्रावश्यक परिणाम है जो उस दशा में निकलेगा जब किसी प्रबल युक्ति के कारण यह न माना जावे कि हिन्दू शास्त्रों के भाव अलङ्कारयुक्त हैं। दुर्भाग्यवश श्राधुनिक खोजी हिन्दू शास्त्रों के अलङ्कारिक भाव से नितान्त ही अनभिज्ञ रहे और उनको वेदों के वास्तविक भाव का पता ही नहीं लगा । परन्तु इस विषय का निर्णय कुछ पुस्तकों में, जिनका पूर्व उल्लेख किया जा चुका है, किया गया है ( देखा मुख्यतः दि की ऑफ नॉलेज व प्रैकृिकल पाथ और कोन्फ्लुएन्स ऑफ पोज़िट्स) । परन्तु * डा० हर्मन जाकोबी साहब ने कांग्रेस आफ दी जन्ज़ ( सर्वधर्मो के इतिहास की कांग्रेस ) के समक्ष निम्नलिखित वाक्य कहे - " अन्त में मुझे अपने दीजिए कि जैन धर्म एक स्वाधीन मत है, जो अन्य मत भिन्न और स्वतन्त्र है । और इसलिए वह भारतवर्ष के दार्शनिक विचार और धार्मिक जीवन के समझने में अत्यन्त उपयोगी है।" ( जैनगज़ट [ अँगरेज़ी ] सन् १६२७ पृ० १०५ ) - अनुवादक । हिस्ट्री ऑफ़ ऑल रिलीजैनमत के विषय में विश्वास को प्रकट करने मतान्तरों से नितान्त १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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