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________________ यह भी कहना अनावश्यकीय है कि प्रीवी कौंसिल के स्लाट महोदय जो युक्तियों के वास्तविक गुणों के समझने में कभी शिथिल नहीं प्रमागित हुए हैं आगामी काल में पूर्णतया उन नये और विशेष हालात ( घटनाओं ) पर जो शिवसिंह राय ब० मु० दाखा के फैसले की तिथि के पश्चात् से हस्तगत या प्रमाणित हुए हैं, विचार करेंगे जब कभी यह नवीन सामग्री उनके समक्ष नीति व नियमों के क्रम में नियमानुसार पेश होगी । संक्षेपतः यह राय कि जैनी हिन्दु-लॉ के अनुयायी हैं इस कल्पना पर निर्धारित है कि जैनी हिन्दू मत से विभिन्न होकर पृथक् हुए हैं। मगर यह कल्पना स्वयं किस प्राधार पर निर्धारित है ? केवल प्रारम्भिक अर्ध योग्यता प्राप्त योरोपियन खोजियों के भूलपूर्ण विचार के हृदय में बने रहनेवाले प्रभाव पर, और इससे न न्यून पर न अधिक पर कि जैनियों का छठी शताब्दी ईस्वी सन् में प्रारम्भ हुआ जब कि बुद्ध मत का पतन प्रारम्भ हो गया था और जब प्रचलित धर्म हिन्दू मत था । अब यह गल्ती दूर हो गई है । जाकोबी आदि पूर्वी शास्त्रों के खोजी अब जैन मत को २७०० वर्ष से अधिक आयु का मानते हैं परन्तु अभी तक जैनी Dissentership ( धर्मच्युत विभिन्न शाखा होनेवाले स्वरूप ) से मुक्त नहीं हुए हैं । यदि बुद्ध मत की शाखा नहीं तो तुम हिन्दू मत से मतभेद करके प्रादुर्भाव होनेवाले तो हो सकते ही हो ! यह वर्तमान काल के योग्य पुरुषों की सम्मति है । इस सम्मति के अनुमोदन में प्रमाण क्या है ? मगर हाँ बुद्धिमान की सम्मति के लिए प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है ? आन्तरिक साक्षी पूर्णतः इसके विरुद्ध है और वास्तव में एक ऐसे बुद्धिमान् की सम्मति को अनुमोदन में लिये हुए है जिसने वर्षों की छानबीन के पश्चात् सच्ची आश्चर्यजनक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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