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________________ और इन सादृश्यों हिन्दुओं ने अपने धर्म के आधार को जैनियों से लिया हो । केवल सादृश्य इस बात के निर्णय में पर्याप्त नहीं है ! में भी जहाँ तक कि इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण जीव दया का सम्बन्ध है मैं कह सकता हूँ कि अहिंसा को हिन्दू धर्म का चिह्न उस प्रकार से नहीं कह सकते जिस प्रकार वह जैन धर्म का लक्षण है । क्योंकि "अहिंसा परमो धर्मः” तो जैन धर्म का आदर्श वाक्य ही रहा है । तीसरी बात कि जैनी हिन्दू देवताओं को मानते और पूजते हैं वाहियात है । इसमें सच का आधार कुछ भी नहीं है । एल्फिन्स्टन ने १- -२ दृष्टान्त ऐसे पाये होंगे और उसी से उन्होंने यह समझ लिया कि सामान्यतया जैनी लोग हिन्दू देवताओं को मानते हैं । ऐसे दृश्य प्रत्येक धर्म में पाये जाते हैं । हिन्दू जनता और विशेषकर स्त्रियाँ आजकल मुसलमानों के ताज़ियों और पीरों की दर्गाहों को पूजते हैं । किन्तु क्या हम कह सकते हैं कि कतिपय व्यक्तियों के इस प्रकार अपनी धर्म-शिक्षा के विरुद्ध आचरण करने से सर्व हिन्दू " मुसलिम डिस्सेन्टर्ट्ज़ " हो गये ? चौथी युक्ति सबसे भद्दी है । उसका आधार इस कल्पना पर है कि हिन्दू-धर्म बेहूदा है और जैनियों ने उसकी बेहूदगी में और भी अधिकता कर दी है। मुझे विश्वास है कि हिन्दू इससे सहमत न होंगे । सच तो यह है कि जिस बात को मिस्टर एल्फिन्स्टन वाहियात समझते हैं वह स्वर्ग के शासक देवताओं की संख्या है जो इन्द्र कहलाते हैं । जैन धर्म में इन्द्रों की संख्या ६४* है और देवांगनाओं की संख्या भी नियत है । यदि यह माना जाय कि वास्तव में नरक और स्वर्ग का अस्तित्व ही नहीं है तो यह कथन निस्सन्देह वाहियात होगा । किन्तु जैनियों का श्रद्धान है कि यह कथन उनके सर्वज्ञ तीर्थंकर * दिगम्बर मतानुसार इन्द्रों की संख्या सौ है । १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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