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________________ दर्शन । बौद्धों ने जैन-दर्शन से श्रास्रव का सारगर्भित शब्द ले लिया है। वह उसका प्रयोग उती अर्थ में करते हैं जिसमें कि जैनियों ने किया है, किन्तु शब्दार्थ में नहीं। क्योंकि बौद्ध यह नहीं मानते कि कर्म कोई सूक्ष्म द्रव्य है और न वह जीव का अस्तित्व ही मानते हैं कि जिसमें कर्म का प्रवेश हो सके। यह स्पष्ट है कि बौद्धों के मत में 'श्राव' का शाब्दिक अर्थ चालू नहीं है और इस कारण इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि उन्होंने इस शब्द को किसी ऐसे धर्म से लिया है कि जहाँ इसका प्रारम्भिक भाव प्रचलित था, अर्थात् जैन दर्शन से ही लिया है......। इस तरह एक ही युक्ति से साथ ही साथ यह भी सिद्ध हो गया कि जैनियों का कर्म-सिद्धान्त उनके धर्म का वास्तविक (निज का) और आवश्यक अङ्ग है, और जैन दर्शन बौद्ध धर्म की उत्पत्ति से बहुत अधिक पहिले का है।" . यदि डाक्टर गौड़ बौद्धों के शास्त्रों के पढ़ने का कष्ट उठाते तो उनको यह ज्ञात हो गया होता कि बुद्धदेव ने स्वत: जैनियों के अन्तिम तीर्थकर महावीर परमात्मन् का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है ___ "भाइयो ! कुछ ऐसे संन्यासी हैं (अचेलक, अजीविक, निगंथ आदि) जिनका ऐसा श्रद्धान है और जो ऐसा उपदेश देते हैं कि प्राणी जो कुछ सुख दुख वा दोनों के मध्यस्थ भाव का अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्म के निमित्त से होता है। और तपश्चरण द्वारा पूर्व कर्मों के नाश से और नये कर्मों के न करने से, श्रागामी जीवन में आस्रव के रोकने से कर्म का क्षय होता है और इस प्रकार पाप का क्षय और सब दुःख का विनाश है। भाइयो, यह निग्रंथ [ जैन ] कहते हैं......मैंने उनसे पूछा क्या यह सच है कि तुम्हारा ऐसा श्रद्धान है और तुम इसका प्रचार करते हो...उन्होंने उत्तर दिया......हमारे गुरु नातपुत्त सर्वज्ञ हैं...उन्होंने अपने गहन ज्ञान से इसका उपदेश किया है कि तुमने पूर्व में पाप किया है, इसको तुम इस कठिन और दुस्सह आचार से दूर करो। और मन वचन काय की प्रवृत्ति का जितना निरोध किया जाता है उतने ही अागामी जन्म के लिए बुरे कर्म कट जाते हैं......इस प्रकार सब कर्म अन्त में क्षय हो जायेंगे और सारे दुःख का विनाश होगा । हम इससे सहमत हैं।"(मजिमम निकाय । २२२१४ व ।। २३८; The Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol. II, Page 70 )। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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