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________________ जैनधर्म का संस्थापक वा उत्पत्ति करनेवाला नहीं था । जैनी उनको परम गुरु करके मानते हैं ।.... ... उनसे पूर्वगत पार्श्वनाथ, जो अन्तिम तीर्थंकर से पहले हुए हैं, मालूम होता है कि जैन धर्म के संस्थापक प्रबल युक्ति के साथ कहे जा सकते हैं,...... किन्तु ऐतिहासिक प्रमाण-पत्रों की अनुपस्थिति में हम इस विषय में केवल तर्क-वितर्क ही कर सकते हैं" । डाक्टर गौड़ के दूसरे सिद्धान्त के विषय में― कि जैनियों ने अपने धार्मिक तत्त्व और आचार बौद्ध धर्म से लिये हैं— सत्यार्थ इस के नितान्त प्रतिकूल है । सबसे अंतिम प्रमाण में निम्न प्रकार दर्शाया गया है; देखा Encyclopedia of Religion and Ethies, Vol. VII, page 472 "अब इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना चाहिए जो प्रत्येक विचारवान् पाठक के मन में उत्पन्न होगा । क्या जैनियों का कर्म सिद्धान्त... जैन दर्शन का प्रारम्भिक और श्रावश्यकीय अङ्ग है ? यह सिद्धान्त ऐसा गहन और कल्पित विदित होता है कि शीघ्र ही मन में यह बात श्राती है कि यह एक आधुनिक आध्यात्मिक तत्त्व संग्रह है जो एक प्रारम्भिक धार्मिक दर्शन के मूल पर लगाया गया है, जिसका आशय जीव रक्षा और सर्व प्राणियों की श्रहिंसा का प्रचार था । किन्तु ऐसे मत का प्रतिकार इस बात से हो जाता है कि यह कर्म सिद्धान्त यदि पूर्ण ब्यौरेवार नहीं तो मूल तत्त्वों की अपेक्षा से तो जैन धर्म के पुराने से पुराने ग्रन्थों में भी पाया जाता है, और उन ग्रन्थों के बहुत से वाक्यों और पारिभाषिक शब्दों में इसका पूर्व अस्तित्व झलकता है । हम यह बात भी नहीं मान सकते कि इस विषय में इन ग्रन्थों में पश्चात् के आविष्कृत तत्वों का उल्लेख किया गया है । क्योंकि, संवर, निर्जरा प्रादि शब्दों का अर्थ तभी समझ में श्री सकता है जब यह मान लिया जावे कि कर्म एक प्रकार का सूक्ष्म द्रव्य है। जो आत्मा में बाहर से प्रवेश करता है (श्रास्रव ); इस प्रवेश को रोका जा सकता है या इसके द्वारों को बन्द कर सकते हैं ( संवर); और जिस कार्मिक द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया है, उसका नाश व तय श्रात्मा के द्वारा हो सकता है (निर्जरा) जैन धर्मावलम्बी इन शब्दों का उनके शाब्दिक अर्थ में ही प्रयोग करते हैं । और मोक्ष मार्ग का स्वरूप इसी प्रकार कहते हैं कि श्रास्रव के संवर और निर्जरा से मोक्ष होता है । अब यह शब्द इतने ही पुराने हैं जितना कि जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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