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________________ अर्थ--जो प्राभूषण भर्तार ने अपनी स्त्री के लिए बनवाए परन्तु उनको उसे देने से प्रथम आप मर गया तो उनको कोई दायाद नहीं ले सकता है। क्योंकि वह उसका स्त्रीधन है ॥ १४४ ॥ व्याधौ धमे च दुर्भिक्षे विपत्तौ प्रतिरोधके । भनिन्यगतिः स्त्रीस्वं लात्वा दातुन चाहति ॥ १४५ ॥ अर्थबीमारी में, धर्म-काम के लिए, दुर्भिक्ष में, आपत्ति के समय में या बन्धन के अवसर पर यदि पति के पास और कोई सहारा न हो और वह स्त्री-धन को ले ले तो उसका लौटाना आवश्यक नहीं है ।। १४५ ॥ सम्भवेदत्र वैचित्र्य देशाचारादिभेदतः । यत्र यस्य प्रधानत्वं तत्र तद्बलवत्तरम् ।। १४६ ॥ अर्थ-विविध देशों के रिवाजों के कारण नीति में भेद पाया जाता है। जो रिवाज जहाँ पर प्रधान होता है वही वहाँ पर लागू होगा ॥ १४६ ।। इत्येव वर्णितस्त्वत्र दायभागः समासतः । यथाश्रुत विपश्चिद्भिज्ञेयोऽहन्नोतिशास्त्रतः ।। १४७ ।। अर्थ-इस रीति से यहाँ सामान्यतः प्रागमानुसार, जैसा सुना है वैसा, दायभाग का वर्णन किया। इस विषय में अधिक देखना हो तो जैन मत के नीतिशास्त्रों को देखना चाहिए ।। १४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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